ए꣣ष꣢ दे꣣वः꣡ शु꣢भाय꣣ते꣢ऽधि꣣ यो꣢ना꣣व꣡म꣢र्त्यः । वृ꣣त्रहा꣡ दे꣢व꣣वी꣡त꣢मः ॥१२८२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एष देवः शुभायतेऽधि योनावमर्त्यः । वृत्रहा देववीतमः ॥१२८२॥
ए꣣षः꣢ । दे꣣वः꣢ । शु꣣भायते । अ꣡धि꣢꣯ । यो꣡नौ꣢꣯ । अ꣡म꣢꣯र्त्यः । अ । म꣣र्त्यः । वृत्रहा꣢ । वृ꣣त्र । हा꣢ । दे꣣ववी꣡त꣢मः । दे꣣व । वी꣡त꣢꣯मः ॥१२८२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में जीवात्मा द्वारा परमात्मा की प्राप्ति का विषय कहा गया है।
(अमर्त्यः) अमरणशील, (वृत्रहा) विघ्नों का विनाशक, (देववीतमः) दिव्यगुणों को अत्यधिक प्राप्त करनेवाला (एष देवः) यह स्तोता जीव (योनौ अधि) परमात्मारूप घर में (शुभायते) शोभित होता है ॥३॥
जैसे गृहस्वामी की घर से शोभा होती है, वैसे ही जीवात्मा की परमात्मा को प्राप्त करने से शोभा होती है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जीवात्मनः परमात्मप्राप्तिविषयमाह।
(अमर्त्यः) अमरणशीलः, (वृत्रहा) विघ्नहन्ता, (देववीतमः) अतिशयेन दिव्यगुणानां प्रापकः (एष देवः) अयं स्तोता जीवः (योनौ अधि) परमात्मरूपे गृहे (शुभायते) शोभते ॥३॥
यथा गृही गृहेण शोभते तथा जीवात्मा परमात्मानं प्राप्य शोभते ॥३॥