ए꣣ष꣢ प꣣वि꣡त्रे꣢ अक्षर꣣त्सो꣡मो꣢ दे꣣वे꣡भ्यः꣢ सु꣣तः꣢ । वि꣢श्वा꣣ धा꣡मा꣢न्यावि꣣श꣢न् ॥१२८१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एष पवित्रे अक्षरत्सोमो देवेभ्यः सुतः । विश्वा धामान्याविशन् ॥१२८१॥
ए꣣षः꣢ । प꣣वि꣡त्रे꣢ । अ꣣क्षरत् । सो꣡मः꣢꣯ । दे꣣वे꣡भ्यः꣢ । सु꣣तः꣢ । वि꣡श्वा꣢꣯ । धा꣡मा꣢꣯नि । आ꣣वि꣢शन् । आ꣣ । विश꣢न् ॥१२८१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे ब्रह्मानन्दरस का विषय वर्णित है।
(देवभ्यः) शरीर में स्थित आत्मा, मन, बुद्धि, प्राण आदियों के लिए (सुतः) अभिषुत किया गया (एषः सोमः) यह ब्रह्मानन्द-रस (पवित्रे) पवित्र अन्तरात्मा में (अक्षरत्) टपका है और (विश्वा धामानि) सब अन्नमय, प्राणमय, मनोमय आदि कोशों में (आविशन्) व्याप्त हो रहा है ॥२॥
अन्तरात्मा के पवित्र होने पर ही ब्रह्मानन्दरस का अनुभव होता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ ब्रह्मानन्दरसविषयमाह।
(देवेभ्यः) शरीरस्थेभ्य आत्ममनोबुद्धिप्राणादिभ्यः (सुतः) अभिषुतः (एषः सोमः) अयं ब्रह्मानन्दरसः (पवित्रे) पूतेऽन्तरात्मनि (अक्षरत्) क्षरितोऽस्ति, किञ्च (विश्वा धामानि) सर्वान् अन्नमयप्राणमयमनोमयादिकोशान् (आविशन्) व्याप्नुवन् वर्तते ॥२॥
अन्तरात्मनि पवित्रे सत्येव ब्रह्मानन्दरसानुभवो जायते ॥२॥