मा꣡ न꣢ इन्द्रा꣣भ्या꣢३꣱दि꣢शः꣣ सू꣡रो꣢ अ꣣क्तु꣡ष्वा य꣢꣯मत् । त्वा꣢ यु꣣जा꣡ व꣢नेम꣣ त꣢त् ॥१२८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)मा न इन्द्राभ्या३दिशः सूरो अक्तुष्वा यमत् । त्वा युजा वनेम तत् ॥१२८॥
मा ꣢ । नः꣣ । इन्द्र । अभि꣢ । आ꣣दि꣡शः꣢ । आ꣣ । दि꣡शः꣢꣯ । सूरः꣢꣯ । अ꣣क्तु꣡षु꣢ । आ । य꣣मत् । त्वा꣢ । यु꣣जा꣢ । व꣣नेम । त꣢त् ॥१२८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह प्रार्थना है कि इन्द्र की मैत्री प्राप्त कर हम आक्रान्ता शत्रुओं पर विजय पा लें।
हे (इन्द्र) परमवीर परमात्मन् अथवा राजन् ! (आदिशः) किसी भी दिशा से (सूरः) अवसर देखकर चुपके से आजानेवाला काम-क्रोधादि राक्षसगण या चोर आदि का समूह (अक्तुषु) अज्ञान-रात्रियों में अथवा अँधेरी रातों में (नः) हमें (मा) मत (अभि आ यमत्) आक्रान्त करे। यदि आक्रान्त करे तो (त्वा) आप (युजा) सहायक के द्वारा हम (तत्) उस कामादि राक्षसगण को अथवा चोरों के गिरोह को (वनेम) विनष्ट कर दें, समूल उन्मूलन करने में समर्थ हों ॥४॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥४॥
इस संसार में अज्ञानान्धकार में अथवा अँधियारी रात में पड़े हुए हम लोगों की न्यूनता देखकर जो कोई काम-क्रोधादि या चोर-लुटेरा आदि हम पर आक्रमण कर हमे विनष्ट करना चाहे, उसे परमात्मा और राजा की सहायता से हम धूल में मिला दें ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रस्य सख्यं प्राप्य वयमाक्रान्तॄन् विजयेमहीति प्रार्थ्यते।
हे (इन्द्र) परमवीर परमात्मन् राजन् वा ! (आदिशः२) कस्मादपि दिग्भागात् (सूरः३) अवसरं दृष्ट्वाऽकस्मात् सरणशीलः कामक्रोधादिरक्षोगणश्चौरादिवर्गो वा। यथा यास्काचार्येण सूर्य शब्दः सृ गतौ धातोर्निष्पादितस्तथैव सूरशब्दोऽपि तस्मादेव धातोर्निष्पादयितुं शक्यम्। द्रष्टव्यम् निरु० १२।१४। (अक्तुषु) अज्ञानरात्रिषु तिमिरनिशासु वा। अक्तुरिति रात्रिनाम। निघं० १।७। (नः) अस्मान् (मा) न (अभि आ यमत्४) अभ्याक्रामेत्। अभि आङ् पूर्वाद् यम उपरमे धातोर्लेटि बहुलं छन्दसि अ० २।४।७३ इति शपो लुकि यच्छादेशाभावः। लेटोऽडाटौ अ० ३।४।९४ इत्यडागमः। यदि च अभ्याक्रामेत् तर्हि (त्वा) त्वया। युष्मदस्तृतीयैकवचने सुपां सुलुक्० अ० ७।१।३९ इति पूर्वसवर्णदीर्घः। (युजा) सहायकेन, वयम् (तत्) रक्षोगणं चौरादिवर्गं वा (वनेम५) हिंस्याम, समूलमुन्मूलयितुं प्रभवेम ॥४॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥४॥
जगत्यस्मिन्नज्ञानतिमिरे तमःपूर्णायां रात्रौ वा निवसतामस्माकं छिद्रं प्रेक्ष्य यः कोऽपि कामक्रोधादिश्चौरलुण्ठकादिर्वाऽऽक्रम्यास्मान् जिघांसति तं परमात्मनो नृपस्य च साहाय्येन वयं धूलिसात् कुर्याम ॥४॥