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ए꣣ष꣢꣫ दिवं꣣ वि꣡ धा꣢वति ति꣣रो꣡ रजा꣢꣯ꣳसि꣣ धा꣡र꣢या । प꣡व꣢मानः꣣ क꣡नि꣢क्रदत् ॥१२६२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

एष दिवं वि धावति तिरो रजाꣳसि धारया । पवमानः कनिक्रदत् ॥१२६२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए꣣षः꣢ । दि꣡व꣢꣯म् । वि । धा꣣वति । तिरः꣢ । र꣡जा꣢꣯ꣳसि । धा꣡र꣢꣯या । प꣡व꣢꣯मानः । क꣡नि꣢꣯क्रदत् ॥१२६२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1262 | (कौथोम) 5 » 2 » 2 » 7 | (रानायाणीय) 10 » 1 » 2 » 7


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर वही विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(एषः) यह (पवमानः) पुरुषार्थी जीवात्मा (कनिक्रदत्) स्तोत्रगान को ध्वनित करता हुआ (रजांसि) रजोगुणों को (तिरः) लाँघकर (धारया) सत्त्वगुण की धारा से (दिवम्) तेजस्वी परमात्मा के प्रति (वि धावति) वेग से जाता है ॥७॥

भावार्थभाषाः -

रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सत्त्वगुण को प्रबल करके ही जीवात्मा परमात्मा को पाता है ॥७॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(एषः) अयम् (पवमानः) पुरुषार्थी जीवात्मा (कनिक्रदत्) स्तोत्रगीतिं ध्वनयन् (रजांसि) रजोगुणान् (तिरः) उल्लङ्घ्य (धारया) सत्त्वगुणस्य धारया (दिवम्) द्युतिमन्तं परमात्मानम् प्रति (वि धावति) वेगेन गच्छति ॥७॥

भावार्थभाषाः -

रजस्तमोऽभिभवेन सत्त्वप्रबलतयैव जीवात्मा परमात्मानमधिगच्छति ॥७॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।३।७।