य꣢द꣣द्य꣡ कच्च꣢꣯ वृत्रहन्नु꣣द꣡गा꣢ अ꣣भि꣡ सू꣢र्य । स꣢र्वं꣣ त꣡दि꣢न्द्र ते꣣ व꣡शे꣢ ॥१२६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभि सूर्य । सर्वं तदिन्द्र ते वशे ॥१२६॥
य꣢त् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । कत् । च꣣ । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । उद꣡गाः꣢ । उ꣣त् । अ꣡गाः꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । सू꣣र्य । स꣡र्व꣢꣯म् । तत् । इ꣣न्द्र । ते । व꣡शे꣢꣯ ॥१२६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
कौन परमात्मा के वश में होता है, यह कहते हैं।
हे (वृत्रहन्) अविद्या, पाप दुराचार आदि, जो धर्म की गति को रोकनेवाले हैं, उनके विनाशक, (सूर्य) प्रकाशमय, प्रकाशदाता (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (अद्य) आज, आप (यत् कत् च) जिस किसी भी मनुष्य को अथवा जिस किसी भी मेरे मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रियों आदि को (अभि) लक्ष्य करके (उदगाः) उदित होते हो, (सर्वं तत्) वे सभी मनुष्य अथवा वे सभी मन, बुद्धि आदि (ते) आपके (वशे) वश में हो जाते हैं ॥२॥
जैसे भौतिक सूर्य जिन किन्हीं भी पदार्थों के प्रति उदित होता है, वे सभी पदार्थ उसके प्रकाश से परिप्लुत हो जाते हैं, वैसे ही परमात्मारूप सूर्य जिसके अन्तःकरण में उदय को प्राप्त होता है, वह उसके दिव्य प्रकाश से परिपूर्ण होकर उसके वश में हो जाता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
कः परमात्मनो वशे जायत इत्याह।
हे (वृत्रहन्२) अविद्यापापदुराचारादीनां धर्मावरकाणां तमसां हन्तः (सूर्य) ज्योतिर्मय ज्योतिष्प्रद (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (अद्य) अस्मिन् दिने, त्वम् (यत् कत् च) यं कमपि मनुष्यम्, यत् किमपि मम मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादिकं वा (अभि) अभिलक्ष्य (उदगाः) उदेषि, (सर्वं तत्) सर्वोऽपि स जनः, सर्वमपि तन्मनोबुद्ध्यादिकं वा (ते) तव (वशे) आधीन्ये जायते इति शेषः३ ॥२॥
यथा भौतिकः सूर्यो यत्किञ्चिदपि पदार्थजातं प्रत्युदेति तत्सर्वं तत्प्रकाशेन परिप्लुतं भवति, तथैव परमात्मसूर्यो यस्यान्तःकरणे समुदेति स तद्दिव्यप्रकाशेनाप्लुतः सन् तद्वशे सञ्जायते ॥२॥४