ए꣣ष꣡ विप्रै꣢꣯र꣣भि꣡ष्टु꣢तो꣣ऽपो꣢ दे꣣वो꣡ वि गा꣢हते । द꣢ध꣣द्र꣡त्ना꣢नि दा꣣शु꣡षे꣢ ॥१२५७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एष विप्रैरभिष्टुतोऽपो देवो वि गाहते । दधद्रत्नानि दाशुषे ॥१२५७॥
ए꣣षः꣢ । वि꣡प्रैः꣢꣯ । वि । प्रैः꣣ । अभि꣡ष्टु꣢तः । अ꣣भि꣢ । स्तु꣣तः । अपः꣢ । दे꣣वः꣢ । वि । गा꣣हते । द꣡ध꣢꣯त् । र꣡त्ना꣢꣯नि । दा꣣शु꣡षे꣢ ॥१२५७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा द्वारा कर्मफल दिये जाने का वर्णन है।
(विप्रैः) विद्वान् उपासकों से (अभिष्टुतः) अभिमुख होकर स्तुति किया गया (एषः) यह (देवः) कर्मफलप्रदाता परमेश्वर (अपः) मनुष्यों से किये गये कर्मों का (विगाहते) आलोडन अर्थात् निरीक्षण करता है और (दाशुषे) आत्मसमर्पणकर्ता शुभकर्मकारी मनुष्य को (रत्नानि) रमणीय फल (दधत्) प्रदान करता है ॥२॥
न्यायकारी परमेश्वर शुभकर्मों का शुभ फल और अशुभ कर्मों का अशुभ फल कर्म करनेवाले को देता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मनः कर्मफलदातृत्वमाह।
(विप्रैः) विपश्चिद्भिः उपासकैः (अभिष्टुतः) आभिमुख्येन स्तुतः (एषः) अयम् (देवः) कर्मफलप्रदाता सोमः परमेश्वरः (अपः) मनुष्यैः कृतानि कर्माणि (विगाहते) आलोडयति, निरीक्षते इत्यर्थः। अथ च (दाशुषे) दानिने आत्मसमर्पकाय शुभकर्मकारिणे जनाय (रत्नानि) रमणीयानि फलानि (दधत्) ददाति ॥२॥
न्यायकारी परमेश्वरः शुभकर्मणां शुभं फलमशुभकर्मणां चाशुभं फलं कर्मकर्त्रे प्रयच्छति ॥२॥