ए꣣ष꣢ दे꣣वो꣡ अम꣢꣯र्त्यः पर्ण꣣वी꣡रि꣢व दीयते । अ꣣भि꣡ द्रोणा꣢꣯न्या꣣स꣡द꣢म् ॥१२५६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एष देवो अमर्त्यः पर्णवीरिव दीयते । अभि द्रोणान्यासदम् ॥१२५६॥
ए꣣षः꣢ । दे꣣वः꣢ । अ꣡म꣢꣯र्त्यः । अ । म꣣र्त्यः । पर्णवीः꣢ । प꣣र्ण । वीः꣢ । इ꣣व । दीयते । अभि꣢ । द्रो꣡णा꣢꣯नी । आ꣣स꣡द꣢म् । आ꣣ । स꣡द꣢꣯म् ॥१२५६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में जीवात्मा की गति वर्णित है।
(एषः) यह (अमर्त्यः) अमर, (देवः) कर्मफलों को भोगनेवाला जीवात्मा रूप सोम, कर्मों के अनुसार (द्रोणानि) देहरूप द्रोण कलशों में (अभि आसदम्) बैठने के लिए (पर्णवीः इव) पक्षी के समान (दीयते) उड़कर जाता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
पक्षी जैसे उड़ता हुआ एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर जाता है, वैसे ही यह जीवात्मा पहले शरीर को छोड़कर कर्मफल भोगने के लिए माता के गर्भ में दूसरे शरीर को प्राप्त करता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ जीवात्मगतिर्वर्ण्यते।
(एषः) अयम् (अमर्त्यः) अमरः (देवः) कर्मफलभोक्ता जीवात्मरूपः सोमः [दिवु धातुः खादनार्थेऽपि पठितः।] कर्मानुसारम् (द्रोणानि) देहरूपान् द्रोणकलशान् (अभि आसदम्) अभ्यासत्तुम् (पर्णवीः इव) पक्षी इव। [पर्णाभ्यां पतत्त्राभ्यां वेति उड्डीयते इति पर्णवीः पक्षी।] (दीयते) उड्डीय गच्छति। [दीयते गतिकर्मा। निघं० २।१४] ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
पक्षी यथोड्डयमानो वृक्षाद् वृक्षान्तरं गच्छति तथैव जीवात्मा पूर्वं देहमुत्सृज्य कर्मफलानि भोक्तुं मातुर्गर्भे द्वितीयं शरीरं गच्छति ॥१॥