इ꣢न्द्र꣣मी꣡शा꣢न꣣मो꣡ज꣢सा꣣भि꣡ स्तोमै꣢꣯रनूषत । स꣣ह꣢स्रं꣣ य꣡स्य꣢ रा꣣त꣡य꣢ उ꣣त꣢ वा꣣ स꣢न्ति꣣ भू꣡य꣢सीः ॥१२५२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्रमीशानमोजसाभि स्तोमैरनूषत । सहस्रं यस्य रातय उत वा सन्ति भूयसीः ॥१२५२॥
इ꣡न्द्र꣢꣯म् । ई꣡शा꣢꣯नम् । ओ꣡ज꣢꣯सा । अ꣣भि꣡ । स्तो꣡मैः꣢꣯ । अ꣣नूषत । स꣣ह꣡स्र꣢म् । य꣡स्य꣢꣯ । रा꣣त꣡यः꣢ । उ꣣त꣢ । वा꣣ । स꣡न्ति꣢꣯ । भू꣡य꣢꣯सीः ॥१२५२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर परमात्मा और जीवात्मा का विषय है।
(ओजसा) बल वा प्रताप से (ईशानम्) जगत् के वा शरीर के शासक (इन्द्रम्) परमेश्वर वा जीवात्मा की सब लोग (स्तोमैः) उनके गुणवर्णन करनेवाले स्तोत्रों से (अभि अनूषत) स्तुति करते हैं, (यस्य) जिस परमेश्वर वा जीवात्मा के (सहस्रम्) हजार (उत वा) अथवा (भूयसीः) उससे भी अधिक (रातयः) दान (सन्ति) हैं ॥३॥
सबको योग्य है कि परमेश्वर की उपासना करके और जीवात्मा को उद्बोधन देकर उनके दानों को प्राप्त करें ॥३॥ इस खण्ड में परमात्मा, जीवात्मा और राजा का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ नवम अध्याय में अष्टम खण्ड समाप्त ॥ नवम अध्याय समाप्त ॥ पञ्चम प्रपाठक में प्रथम अर्ध समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि परमात्मजीवात्मनोर्विषयमाह।
(ओजसा) बलेन प्रतापेन वा (ईशानम्) जगतो देहस्य वा शासकम् (इन्द्रम्) परमेश्वरं जीवात्मानं वा, सर्वे जनाः (स्तोमैः) तद्गुणकीर्तनपरैः स्तोत्रैः (अभि अनूषत) अभिष्टुवन्ति, (यस्य) परमेश्वरस्य जीवात्मनो वा (सहस्रम्) सहस्रसंख्याकाः (उत वा) अथवा (भूयसीः) ततोऽप्यधिकाः (रातयः) दत्तयः (सन्ति) भवन्ति ॥३॥२
परमेश्वरमुपास्य जीवात्मानं च प्रोद्बोध्य तयोर्दानानि सर्वे प्राप्तुमर्हन्ति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमात्मनो जीवात्मनो नृपतेश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥