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पु꣣रां꣢ भि꣣न्दु꣡र्युवा꣢꣯ क꣣वि꣡रमि꣢꣯तौजा अजायत । इ꣢न्द्रो꣣ वि꣡श्व꣢स्य꣣ क꣡र्म꣢णो ध꣣र्त्ता꣢ व꣣ज्री꣡ पु꣢रुष्टु꣣तः꣢ ॥१२५०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत । इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्त्ता वज्री पुरुष्टुतः ॥१२५०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु꣣रा꣢म् । भि꣣न्दुः꣢ । यु꣡वा꣢꣯ । क꣣विः꣢ । अ꣡मि꣢꣯तौजाः । अ꣡मि꣢꣯त । ओ꣣जाः । अजायत । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । क꣡र्म꣢꣯णः । ध꣣र्त्ता꣢ । व꣣ज्री꣢ । पु꣣रुष्टुतः꣢ । पु꣣रु । स्तुतः꣢ ॥१२५०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1250 | (कौथोम) 5 » 1 » 20 » 1 | (रानायाणीय) 9 » 9 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३५९ क्रमाङ्क पर परमेश्वर, राजा, सेनापति और सूर्य के विषय में की जा चुकी है। यहाँ जीवात्मा का विषय कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्द्रः) यह देहधारी जीवात्मा (पुराम्) शत्रु-नगरियों का (भिन्दुः) भेदन करनेवाला, (युवा) यौवन-सम्पन्न, (कविः) क्रान्तदर्शी, (अमितौजाः) अपरिमित बलवाला, (विश्वस्य) सब (कर्मणः) क्रियाकाण्ड का (धर्ता) धारणकर्त्ता, (वज्री) शस्त्रास्त्रों को हाथ में लेनेवाला और (पुरुष्टुतः) बहु-स्तुत (अजायत) हुआ है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जीवात्मा में अपूर्व शक्ति निहित है। अपनी शक्ति को पहचानकर वह महान् से महान् कर्मों को कर सकता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३५९ क्रमाङ्के परमेश्वरनृपतिसेनापतिसूर्यविषये व्याख्याता। अत्र जीवात्मविषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्द्रः) एष देहधारी जीवात्मा (पुराम्) शत्रुनगरीणाम् (भिन्दुः) भेत्ता, (युवा) यौवनसम्पन्नः, (कविः) क्रान्तद्रष्टा, (अमितौजाः) अपरिमितबलः, (विश्वस्य) सर्वस्य (कर्मणः) क्रियाकाण्डस्य (धर्ता) धारणकर्ता, (वज्री) शस्त्रास्त्रपाणिः, (पुरुष्टुतः) बहुस्तुतश्च (अजायत) जातोऽस्ति ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

जीवात्मनि खल्वपूर्वा शक्तिर्निहिता। स्वशक्तिं परिचित्य स महान्ति कर्माणि कर्तुं शक्नोति ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० १।११।४, साम० ३५९। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिमन्त्रमिमं सूर्यसेनापत्योर्विषये व्याख्यातवान्।