उ꣢꣫द्घेद꣣भि꣢ श्रु꣣ता꣡म꣢घं वृष꣣भं꣡ नर्या꣢꣯पसम् । अ꣡स्ता꣢रमेषि सूर्य ॥१२५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उद्घेदभि श्रुतामघं वृषभं नर्यापसम् । अस्तारमेषि सूर्य ॥१२५॥
उ꣢त् । घ꣣ । इ꣢त् । अ꣣भि꣢ । श्रु꣣ता꣡म꣢घम् । श्रु꣣त꣢ । म꣣घम् । वृषभ꣢म् । न꣡र्या꣢꣯पसम् । न꣡र्य꣢꣯ । अ꣣पसम् । अ꣡स्ता꣢꣯रम् । ए꣣षि । सूर्य ॥१२५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में यह वर्णन है कि परमात्मारूप सूर्य किसके प्रति उदित होता है।
हे (सूर्य) सूर्य के तुल्य प्रकाशमान और प्रकाशकर्ता, चराचर के अन्तर्यामी, सद्बुद्धि के प्रेरक, तमोगुण को प्रकंपित करनेवाले परमात्मन् ! (त्वम्) आप (घ) निश्चय ही (श्रुतामघम्) वेदादि शास्त्रों का ज्ञान ही जिसका धन है, ऐसे (वृषभम्) विद्या, धन आदि की वर्षा करनेवाले (नर्यापसम्) जनहित के कर्मों में संलग्न, (अस्तारम्) सब विघ्न-बाधाओं को प्रक्षिप्त कर देनेवाले मनुष्य को ही (अभि) लक्ष्य करके (उद् एषि) उदित होते हो, अर्थात् उसके हृदय में प्रकट होते हो ॥१॥
भौतिक सूर्य तो विद्वान्-अविद्वान्, दाता-कृपण, परोपकारी-स्वार्थी, जीते-हारे सबके प्रति उदित होता है। परन्तु परमात्मा-रूप सूर्य उन्हीं के हृदय में प्रकाशित होता है जो वेदादि श्रेष्ठ शास्त्रों के श्रवण को ही धन मानते हैं, जो अपने उपार्जित विद्यादि वैभव को और भौतिक धन को बादल के समान सब जगह बरसाते हैं, जिनके कर्म जन-कल्याणकारी होते हैं और जो बड़े से बड़े शत्रु को और बड़ी से बड़ी बाधा को अपने बल से परास्त कर देने का साहस रखते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मरूपः सूर्यः कं प्रत्युदेतीत्याह।
हे (सूर्य) सूर्यवत् प्रकाशमान, प्रकाशकर्तः, चराचरान्तर्यामिन्, सद्बुद्धिप्रेरक, तमोगुणप्रकम्पक इन्द्र परमात्मन् ! सूर्यः सर्तेर्वा सुवतेर्वा स्वीर्यतेर्वा। निरु० १२।१४। सृ गतौ, षू प्रेरणे, सु-ईर गतौ कम्पने च। राजसूयसूर्य० अ० ३।१।११४ इत्यनेनायं निपातितः। त्वम् (घ) निश्चयेन (श्रुतामघम्२) श्रुतं वेदादिशास्त्रज्ञानमेव मघं धनं यस्य तम्। मघमिति धननामधेयं मंहतेर्दानकर्मणः, निरु० १।६। पूर्वपदस्य दीर्घश्छान्दसः। (वृषभम्) विद्याधनादिवर्षकम्, (नर्यापसम्) नर्याणि नरहितकराणि अपांसि कर्माणि यस्य तम्। नरेभ्यो हितानि नर्याणि। नरशब्दात् हितार्थे यत् प्रत्ययः। अपस् इति कर्मनाम। निघं० २।१। (अस्तारम्) सकलविघ्नबाधानां प्रक्षेप्तारम्। असु क्षेपणे धातोः कर्तरि तृच्। एवंगुणविशिष्टमेव जनम् (अभि) अभिलक्ष्य (उत् एषि) उदयं प्राप्नोषि, तदीयहृदये आविर्भवसि इत्यर्थः ॥१॥
भौतिकः सूर्यः खलु विद्वांसं वा मूर्खं वा, दातारं वा कृपणं वा, परोपकारिणं वा स्वार्थपरायणं वा, विजेतारं वा विजितं वा सर्वान् प्रत्युदेति। परं परमात्मरूपः सूर्यस्तेषामेव हृदये प्रकाशते ये वेदादिसच्छास्त्रश्रवणमेव धनं मन्यन्ते, ये स्वोपार्जितं विद्यादिवैभवं भौतिकं च धनं मेघवत् सर्वत्र वर्षन्ति, येषां कार्याणि सर्वेषां नराणां हितकराणि जायन्ते, ये च महान्तमपि शत्रुं महतीमपि च बाधां स्वबलेन दूरं प्रक्षेप्तुमुत्सहन्ते ॥१॥