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देवता: इन्द्रः ऋषि: नृमेध आङ्गिरसः छन्द: उष्णिक् स्वर: ऋषभः काण्ड:

ए꣡न्द्र꣢ नो गधि प्रिय꣣ स꣡त्रा꣢जिदगोह्य । गि꣣रि꣢꣫र्न वि꣣श्व꣡तः꣢ पृ꣣थुः꣡ पति꣢꣯र्दि꣣वः꣢ ॥१२४७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

एन्द्र नो गधि प्रिय सत्राजिदगोह्य । गिरिर्न विश्वतः पृथुः पतिर्दिवः ॥१२४७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢ । इ꣣न्द्र । नः । गधि । प्रिय । स꣡त्रा꣢꣯जित् । स꣡त्रा꣢꣯ । जि꣣त् । अगोह्य । अ । गोह्य । गिरिः꣢ । न । वि꣣श्व꣡तः꣢ । पृ꣣थुः꣢ । प꣡तिः꣢꣯ । दि꣣वः꣢ ॥१२४७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1247 | (कौथोम) 5 » 1 » 19 » 1 | (रानायाणीय) 9 » 9 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३९३ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ फिर उसी विषय का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (प्रिय) तृप्तिप्रदाता, (सत्राजित्) एक साथ सब शत्रुओं को जीत लेनेवाले, (अगोह्य) न छिपाये जा सकने योग्य अर्थात् सर्वत्र प्रकाशमान (इन्द्र) परमात्मन् ! आप (गिरिः न) बादल के समान (सर्वतः) सब ओर (पृथुः) प्रख्यात और (दिवः पतिः) तेजस्वी सूर्य के वा जीवात्मा के स्वामी हो ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यद्यपि परमेश्वर चर्मचक्षु से दिखाई नहीं देता, तो भी वह सूर्य के समान सर्वत्र प्रकाशित, तृप्तिप्रदायक, सर्वविजेता, सुख आदि की वर्षा करने के कारण बादल के समान प्रसिद्धि-प्राप्त और सब जड़-चेतन जगत् का अधिपति है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३९३ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र पुनरपि स एव विषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (प्रिय) प्रीणयितः, (सत्राजित्) युगपत् सर्वान् शत्रून् जेतः ! [सत्रा सह जयतीति सत्राजित्।] (अगोह्यः) गोहितुमशक्य, सर्वत्र प्रकाशमान (इन्द्र) परमात्मन् ! त्वम् (नः) अस्मान् (आ गधि) आगहि आगच्छ। त्वम् (गिरिः न) मेघ इव। [गिरिः इति मेघनाम। निघं० १।१०।] (सर्वतः) विश्वतः (पृथुः) प्रख्यातः, अपि च (दिवः पतिः) द्योतमानस्य सूर्यस्य जीवात्मनो वा स्वामी असि ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यद्यपि परमेश्वरश्चर्मचक्षुषा न दृश्यते तथापि स सूर्यवत् सर्वत्र प्रकाशितस्तृप्तिप्रदायकः सर्वविजेता सुखादीनां वृष्टिकरणान्मेघवत् प्रसिद्धिं गतः सर्वस्य जडचेतनात्मकस्य जगतोऽधिपतिश्चास्ति ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।९८।४, अथ० २०।६४।१, उभयत्र ‘प्रि॒यः स॑त्रा॒जिदगो॑ह्यः’ इति पाठः। साम० ३९३।