प्रे꣡ष्ठं꣢ वो꣣ अ꣡ति꣢थिꣳ स्तु꣣षे꣢ मि꣣त्र꣡मि꣢व प्रि꣣य꣢म् । अ꣢ग्ने꣣ र꣢थं꣣ न꣡ वेद्य꣢꣯म् ॥१२४४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्रेष्ठं वो अतिथिꣳ स्तुषे मित्रमिव प्रियम् । अग्ने रथं न वेद्यम् ॥१२४४॥
प्रे꣡ष्ठ꣢꣯म् । वः꣣ । अ꣡ति꣢꣯थिम् । स्तु꣣षे꣢ । मि꣣त्र꣢म् । मि꣣ । त्र꣢म् । इ꣣व । प्रिय꣢म् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । र꣡थ꣢꣯म् । न । वे꣡द्य꣢꣯म् ॥१२४४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ५ क्रमाङ्क पर परमात्मा की स्तुति के विषय में की जा चुकी है। यहाँ परमात्मा और राजा दोनों का विषय दर्शाते हैं।
हे (अग्ने) जग के नेता परमात्मन् वा राष्ट्र के नेता राजन् ! (प्रेष्ठम्) अतिशय प्रिय, (अतिथिम्) अतिथि के समान सत्कार-योग्य, (मित्रम् इव) मित्र के समान (प्रियम्) तृप्तिप्रदाता और (रथं न) रथ के समान (वेद्यम्) प्राप्तव्य (वः) आपकी मैं (स्तुषे) स्तुति करता हूँ अर्थात् आपके गुणों का वर्णन करता हूँ ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥
जैसे लोग परमात्मा की पूजा करें, वैसे ही राजा का भी सत्कार करें और जैसे परमात्मा लोगों को तृप्ति देता है, वैसे ही राजा भी प्रजाओं को तृप्त करे ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५ क्रमाङ्के परमात्मस्तुतिविषये व्याख्याता। अत्र परमात्मनृपत्योरुभयोर्विषय उच्यते।
हे (अग्ने) जगन्नायक परमात्मन् राष्ट्रनायक राजन् वा ! (प्रेष्ठम्) प्रियतमम्, (अतिथिम्) अतिथिवत् सत्करणीयम्, (मित्रम् इव) सखायमिव (प्रियम्) प्रीणयितारम्, (रथं न) रथमिव (वेद्यम्) प्राप्तव्यम् (वः) त्वाम्, अहम् (स्तुषे) स्तौमि, तव गुणान् वर्णयामीत्यर्थः ॥१॥ अत्रोपमाङ्कारः ॥१॥
यथा जनाः परमात्मानं पूजयेयुस्तथा राजानमपि सत्कुर्युः। यथा च परमात्मा जनान् प्रीणयति तथा राजापि प्रजाः प्रीणयेत् ॥१॥