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शु꣣क्रः꣡ प꣢वस्व दे꣣वे꣡भ्यः꣢ सोम दि꣣वे꣡ पृ꣢थि꣣व्यै꣡ शं च꣢꣯ प्र꣣जा꣡भ्यः꣢ ॥१२४२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

शुक्रः पवस्व देवेभ्यः सोम दिवे पृथिव्यै शं च प्रजाभ्यः ॥१२४२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

शु꣣क्रः꣢ । प꣣वस्व । देवे꣡भ्यः꣢꣯ । सो꣣म । दिवे꣢ । पृ꣣थिव्यै꣢ । शम् । च꣣ । प्रजा꣡भ्यः꣢ । प्र꣣ । जा꣡भ्यः꣢꣯ ॥१२४२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1242 | (कौथोम) 5 » 1 » 17 » 2 | (रानायाणीय) 9 » 8 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) जगत्स्रष्टा परमात्मन् ! (शुक्रः) तेजस्वी और पवित्र आप (देवेभ्यः) दिव्य गुणों से युक्त जनों के लिए (पवस्व) तेज और पवित्रता को प्रवाहित करो। (दिवे) सूर्य के लिए, (पृथिव्यै) भूलोक के लिए और (प्रजाभ्यः) प्रजाननों के लिए (शम्) कल्याणकारी होवो ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथाशक्ति परमात्मा के गुणों को अपने आत्मा में धारण करके हम तेज, पवित्रता और शान्ति प्राप्त कर सकते हैं ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मानं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! (शुक्रः) तेजस्वी पवित्रश्च त्वम्। [शोचतिः ज्वलतिकर्मा। निघं० १।१६, शुचिर् पूतीभावे, दिवादिः। शोचति दीप्यते शुच्यति पवित्रो भवतीति वा शुक्रः। ‘ऋज्रेन्द्राग्र०’ उ० २।२९ इति रन्प्रत्ययान्तो निपातः।] (देवेभ्यः) दिव्यगुणयुक्तेभ्यो जनेभ्यः (पवस्व) तेजः पवित्रतां च प्रवाहय। (दिवे) सूर्याय (पृथिव्यै) भूलोकाय, (प्रजाभ्यः) प्रजाजनेभ्यश्च (शम्) कल्याणकरो भव ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथाशक्ति परमात्मगुणान् स्वात्मनि धारयित्वा वयं तेजः पवित्रतां शान्तिं च प्राप्तुं शक्नुमः ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०९।५, ‘प्रजाभ्यः’ इत्यत्र ‘प्र॒जायै॑’ इति पाठः।