प꣡व꣢स्व सोम म꣣हा꣡न्त्स꣢मु꣣द्रः꣢ पि꣣ता꣢ दे꣣वा꣢नां꣣ वि꣢श्वा꣣भि꣡ धाम꣢꣯ ॥१२४१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवस्व सोम महान्त्समुद्रः पिता देवानां विश्वाभि धाम ॥१२४१॥
प꣡व꣢꣯स्व । सो꣣म । महा꣢न् । स꣣मुद्रः꣢ । स꣣म् । उद्रः꣢ । पि꣣ता꣢ । दे꣣वा꣢ना꣡म् । वि꣡श्वा꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । धा꣡म꣢꣯ ॥१२४१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४२९ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ पर फिर परमात्मा का विषय कहते हैं।
हे (सोम) आनन्दरस के भण्डार परमात्मन् ! आप (महान् समुद्रः) विशाल बादल हो, (देवानाम्) दिव्यगुणों के (पिता) उत्पादक और पालक हो। आप (विश्वा धाम अभि) सब हृदय-धामों को लक्ष्य करके (पवस्व) बरसो ॥१॥ यहाँ सोम परमात्मा में मेघत्व (समुद्रत्व) का आरोप होने से रूपक अलङ्कार है ॥१॥
जैसे बादल भूमि पर बरस कर वनस्पति आदि को उत्पन्न करता है, वैसे ही परमेश्वर आनन्दवर्षा करके दिव्यगुणों को सृजता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४२९ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र पुनः परमात्मविषय उच्यते।
हे (सोम) आनन्दरसागार परमात्मन् ! त्वम् (महान् समुद्रः) महान् मेघोऽसि, (देवानाम्) दिव्यगुणानाम् (पिता) जनकः पालकश्चासि। त्वम् (विश्वा धाम अभि) सर्वाणि हृदयधामानि अभिलक्ष्य (पवस्व) वर्ष ॥१॥ अत्र सोमे परमात्मनि मेघत्वारोपाद् रूपकालङ्कारः ॥१॥
यथा मेघो भूमौ वर्षित्वा वनस्पत्यादीन्युत्पादयति तथा परमेश्वर आनन्दवृष्ट्या दिव्यगुणान् प्रसूते ॥१॥