प꣢रि꣣ स्य꣢ स्वा꣣नो꣡ अ꣢क्षर꣣दि꣢न्दु꣣र꣢व्ये꣣ म꣡द꣢च्युतः । धा꣢रा꣣ य꣢ ऊ꣣र्ध्वो꣡ अ꣢ध्व꣣रे꣢ भ्रा꣣जा꣡ न याति꣢꣯ गव्य꣣युः꣢ ॥१२४०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)परि स्य स्वानो अक्षरदिन्दुरव्ये मदच्युतः । धारा य ऊर्ध्वो अध्वरे भ्राजा न याति गव्ययुः ॥१२४०॥
प꣡रि꣢꣯ । स्यः । स्वा꣣नः꣢ । अ꣣क्षरन् । इ꣡न्दुः꣢꣯ । अ꣡व्ये꣢꣯ । म꣡द꣢꣯च्युतः । म꣡द꣢꣯ । च्यु꣣तः । धा꣡रा꣢꣯ । यः । ऊ꣣र्ध्वः꣢ । अ꣣ध्वरे꣢ । भ्रा꣣जा꣢ । न । या꣡ति꣢꣯ । ग꣣व्ययुः꣢ ॥१२४०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में ब्रह्मानन्द-रस वा ज्ञान-रस का विषय है।
(स्यः) वह (स्वानः) अभिषुत किया जाता हुआ, (मदच्युतः) उत्साह देने के लिए निकला हुआ (इन्दुः) भिगोनेवाला आनन्द-रस वा ज्ञानरस (अव्ये) अव्यय अर्थात् अविनश्वर जीवात्मा में (परि अक्षरत्) परमात्मा के पास से वा आचार्य के पास से क्षरित हुआ है, (यः) जो (ऊर्ध्वः) उत्कृष्ट आनन्द-रस वा ज्ञान-रस (गव्ययुः) प्रकाश देने का इच्छुक-सा होकर (अध्वरे) उपासना-यज्ञ वा विद्या-यज्ञ में (भ्राजा धारा न) मानो प्रदीप्त धारा के साथ (याति) प्रवाहित हो रहा है ॥३॥ यहाँ उत्प्रेक्षा अलङ्कार है ॥३॥
परमेश्वरोपासना-यज्ञ से परमानन्द-रस को और विद्या-यज्ञ से ज्ञान-रस को प्राप्त करके लोग दिव्य प्रकाश पाकर कृतार्थ होवें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथानन्दरसस्य ज्ञानरसस्य च विषयमाह।
(स्यः) सः (स्वानः) अभिषूयमाणः, (मदच्युतः) मदाय उत्साहाय च्युतः निःसृतः (इन्दुः) क्लेदकः ब्रह्मानन्दरसो ज्ञानरसो वा (अव्ये) अव्यये अविनाशिनि जीवात्मनि (परि अक्षरत्) परमात्मनः सकाशादाचार्यस्य सकाशाद् वा परिक्षरति, (यः ऊर्ध्वः) उत्कृष्टः आनन्दरसो ज्ञानरसो वा (गव्ययुः) प्रकाशप्रदानकामः इव सन् (अध्वरे) उपासनायज्ञे विद्यायज्ञे वा (भ्राजा धारा न) दीप्तया धारया इव (याति) गच्छति, प्रवहति ॥३॥ अत्रोत्प्रेक्षालङ्कारः ॥३॥
परमेश्वरोपासनायज्ञेन परमानन्दरसं विद्यायज्ञेन च ज्ञानरसं प्राप्य जना दिव्यं प्रकाशमधिगम्य कृतार्था भवन्तु ॥३॥