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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: निध्रुविः काश्यपः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣣प꣡घ्नन्प꣢वसे꣣ मृ꣡धः꣢ क्रतुवित्सोम मत्सरः । नुदस्वादेवयुं जनम् ॥१२३७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अपघ्नन्पवसे मृधः क्रतुवित्सोम मत्सरः । नुदस्वादेवयुं जनम् ॥१२३७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣पघ्नन् । अ꣣प । घ्न꣢न् । प꣣वसे । मृ꣡धः꣢꣯ । क्र꣣तुवि꣢त् । क्र꣣तु । वि꣢त् । सो꣣म । मत्सरः꣢ । नु꣣द꣡स्व꣢ । अ꣡दे꣢꣯वयुम् । अ । दे꣣वयुम् । ज꣡न꣢꣯म् ॥१२३७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1237 | (कौथोम) 5 » 1 » 15 » 3 | (रानायाणीय) 9 » 8 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीय ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ४९२ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ एक साथ परमात्मा और आचार्य दोनों का विषय वर्णित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) आनन्दरस के भण्डार परमात्मन् वा विद्यारस के भण्डार आचार्य ! (क्रतुवित्) विज्ञानों और कर्मों को प्राप्त करानेवाले, (मत्सरः) आनन्ददाता आप (मृधः) हिंसावृत्तियों को (अपघ्नन्) विनष्ट करते हुए (पवसे) मनुष्यों वा विद्यार्थियों के अन्तःकरण को पवित्र करते हो। आप (अदेवयुम्) दिव्यगुणों को प्राप्त न करना चाहनेवाले (जनम्) मनुष्य को वा विद्यार्थी को (नुदस्व) उनकी प्राप्ति के लिए प्रेरित करो ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे परमेश्वर वेद द्वारा दिव्य गुणों की प्राप्ति का सन्देश देकर योगाभ्यासियों को ब्रह्मानन्द प्रदान करके कृतार्थ करता है, वैसे ही आचार्य छात्रों को क्रियात्मक ज्ञानसहित आध्यात्मिक एवं भौतिक विविध विद्याएँ सिखाकर, उनमें दिव्य गुण उत्पन्न करके उन्हें सुयोग्य बनाए ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीया ऋक् पूर्वार्चिके ४९२ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र युगपत् परमात्माचार्ययोरुभयोर्विषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) आनन्दरसागार परमात्मन् विद्यारसागार आचार्य वा ! (क्रतुवित्) क्रतूनां विज्ञानानां कर्मणां च लम्भकः, (मत्सरः) आनन्दप्रदः त्वम् (मृधः) हिंसावृत्तीः (अपघ्नन्) विनाशयन् (पवसे) जनानां विद्यार्थिनां वा अन्तःकरणं पुनासि। त्वम् (अदेवयुम्) अदेवकामम्, दिव्यगुणप्राप्त्यनिच्छुकम् (जनम्) मनुष्यं विद्यार्थिनं वा (नुदस्व) तत्प्राप्त्यर्थं प्रेरय ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यथा परमेश्वरो वेदद्वारेण दिव्यगुणप्राप्तिं सन्दिश्य योगाभ्यासिभ्यो ब्रह्मानन्दं प्रदाय तान् कृतार्थान् करोति तथैव आचार्यश्छात्रान् क्रियात्मकज्ञानसहिता आध्यात्मिकीर्भौतिकीश्च विविधा विद्याः शिक्षयित्वा तेषु दिव्यगुणांश्चोत्पाद्य तान् सुयोग्यान् कुर्यात् ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६३।२४, साम० ४९२।