प꣡व꣢मान꣣ नि꣡ तो꣢शसे र꣣यि꣡ꣳ सो꣢म श्र꣣वा꣡य्य꣢म् । इ꣡न्दो꣢ समु꣣द्र꣡मा वि꣢꣯श ॥१२३६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवमान नि तोशसे रयिꣳ सोम श्रवाय्यम् । इन्दो समुद्रमा विश ॥१२३६॥
प꣡व꣢꣯मान । नि । तो꣣शसे । रयि꣢म् । सो꣣म । श्रवा꣡य्य꣢म् । इ꣡न्दो꣢꣯ । स꣣मु꣢द्रम् । स꣣म् । उद्र꣢म् । आ । वि꣣श ॥१२३६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का विषय है।
हे (पवमान) पवित्रतादायक (सोम) रसागार परमात्मन् ! आप (श्रवाय्यम्) कीर्ति उत्पन्न करनेवाले (रयिम्) आध्यात्मिक तथा भौतिक ऐश्वर्य को (नितोशसे) देते हो। हे (इन्दो) उपासकों को चन्द्रमा के समान आह्लाद देनेवाले परमेश ! आप (समुद्रम्) जीवात्मरूप समुद्र में (आविश) प्रवेश करो ॥२॥
जैसे चन्द्रमा अपने आकर्षण से समुद्र के जल को ऊपर उठाता है, वैसे परमेश्वर अपने चुम्बकीय आकर्षण से जीवात्मा को उन्नत करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि परमात्मविषयमाह।
हे (पवमान) पवित्रताप्रदायक (सोम) रसागार परमात्मन् ! त्वम् (श्रवाय्यम्) कीर्तिजनकम्। [श्रावयतीति श्रवाय्यः। श्रुदक्षिस्पृहिगृहिभ्य आय्यः। उ० ३।९६ इत्यनेन शृणोतेः आय्य प्रत्ययः।] (रयिम्) आध्यात्मिकं भौतिकं चैश्वर्यम् (नितोशसे२) प्रयच्छसि। हे (इन्दो) उपासकानां चन्द्रवदाह्लादक परमेश ! त्वम् (समुद्रम्) जीवात्मरूपं समुद्रम् (आ विश) प्रविश ॥२॥
यथा चन्द्रः स्वाकर्षणेन समुद्रजलमुन्नयति तथा परमेश्वरश्चुम्बकीयेन स्वाकर्षणेन जीवात्मानमुन्नयति ॥२॥