प꣡व꣢स्व दे꣣व꣡ आ꣢यु꣣ष꣡गिन्द्रं꣢꣯ गच्छतु ते꣣ म꣡दः꣢ । वा꣣यु꣡मा रो꣢꣯ह꣣ ध꣡र्म꣢णा ॥१२३५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवस्व देव आयुषगिन्द्रं गच्छतु ते मदः । वायुमा रोह धर्मणा ॥१२३५॥
प꣡व꣢꣯स्व । दे꣣वः꣢ । आ꣣युष꣢क् । आ꣣यु । स꣢क् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । ग꣣च्छतु । ते । म꣡दः꣢꣯ । वा꣣यु꣢म् । आ । रो꣣ह । ध꣡र्म꣢꣯णा ॥१२३५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४८३ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ भी प्रकारान्तर से उसी विषय का निरूपण किया जा रहा है।
हे सोम ! हे रसमय परमात्मन् ! (देवः) आनन्ददायक आप (आयुषक्) आयु भर (पवस्व) आनन्द-रस को प्रवाहित करते रहो। (ते) आपका (मदः) आनन्द (इन्द्रम्) जीवात्मा को (गच्छतु) प्राप्त हो। आप (धर्मणा) अपने गुण-कर्म-स्वभाव के साथ (वायुम्) हमारे गतिशील मन पर (आरोह) सवार हो जाओ, अभिप्राय यह है कि मन को अपने प्रभाव से प्रभावित करो ॥१॥
परमेश्वर के उपासकों के आत्मा, मन, बुद्धि आदि परम आनन्द के प्रवाह से परिप्लुत हो जाते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४८३ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्रापि प्रकारान्तरेण स एव विषयो निरूप्यते।
हे सोम ! हे रसमय परमात्मन् ! (देवः) मोददायकः त्वम् (आयुषक्) सम्पूर्णे आयुनि२ अनुषक्तं यथा स्यात्तथा, सर्वदा इत्यर्थः (पवस्व) आनन्दरसं प्रवाहय। (ते) तव (मदः) आनन्दः (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (गच्छतु) प्राप्नोतु। त्वम् (धर्मणा) स्वकीयगुणकर्मस्वभावेन सह (वायुम्) अस्माकं गतिशीलं मनः (आ रोह) आरूढो भव, मनसि स्वप्रभावं वितनु इति भावः ॥१॥
परमेश्वरोपासकानामात्ममनोबुद्ध्यादिकं परमानन्दप्रवाहेण परिप्लुतं जायते ॥१॥