अ꣡ध्व꣢र्यो꣣ अ꣡द्रि꣢भिः सु꣣त꣡ꣳ सोमं꣢꣯ प꣣वि꣢त्र꣣ आ꣡ न꣢य । पु꣣नाही꣡न्द्रा꣢य꣣ पा꣡त꣢वे ॥१२२५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अध्वर्यो अद्रिभिः सुतꣳ सोमं पवित्र आ नय । पुनाहीन्द्राय पातवे ॥१२२५॥
अ꣡य्व꣢꣯र्यो । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । सुत꣢म् । सो꣡म꣢꣯म् । प꣣वि꣡त्रे꣢ । आ । नय꣣ । पुनाहि꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । पा꣡त꣢꣯वे ॥१२२५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ४९९ क्रमाङ्क पर ज्ञान-यज्ञ के विषय में की गयी थी। यहाँ उपासना-यज्ञ का वर्णन करते हैं।
हे (अध्वर्यो) उपासना-यज्ञ के सञ्चालक उपासक ! तू (अद्रिभिः) ध्यानरूप सिल-बट्टों से (सुतम्) अभिषुत किये गये (सोमम्) भक्तिरस को (पवित्रे) पवित्र हृदय में (आनय) ला और (इन्द्राय पातवे) परमात्मा के पान के लिए उसे (पुनीहि) पवित्र कर ॥१॥
छल, छिद्र, आडम्बर आदि से रहित पवित्र भक्तिरस से ही परमेश्वर तृप्त होता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४९९ क्रमाङ्के ज्ञानयज्ञविषये व्याख्याता। अत्रोपासनायज्ञविषयो वर्ण्यते।
हे (अध्वर्यो) उपासनायज्ञस्य सञ्चालक उपासक ! त्वम् (अद्रिभिः) ध्यानरूपैः पेषणपाषाणैः (सुतम्) अभिषुतम् (सोमम्) भक्तिरसम् (पवित्रे) परिपूते हृदये (आनय) आहर। किञ्च, (इन्द्राय पातवे) परमात्मनः पानाय तम् (पुनाहि) पुनीहि, पवित्रय ॥१॥२
छलच्छिद्राडम्बरादिरहितेन पवित्रेणैव भक्तिरसेन परमेश्वरस्तृप्यति ॥१॥