गि꣣रा꣢꣫ वज्रो꣣ न꣡ सम्भृ꣢꣯तः꣣ स꣡ब꣢लो꣣ अ꣡न꣢पच्युतः । व꣣व꣢क्ष उ꣣ग्रो꣡ अस्तृ꣢꣯तः ॥१२२४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)गिरा वज्रो न सम्भृतः सबलो अनपच्युतः । ववक्ष उग्रो अस्तृतः ॥१२२४॥
गि꣣रा꣢ । व꣡ज्रः꣢꣯ । न । स꣡म्भृ꣢꣯तः । सम् । भृ꣣तः । स꣡ब꣢꣯लः । स । ब꣣लः । अ꣡न꣢꣯पच्युतः । अन् । अ꣣पच्युतः । ववक्षे꣢ । उ꣣ग्रः꣢ । अ꣡स्तृ꣢꣯तः । अ । स्तृ꣣तः ॥१२२४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर उसी विषय में कहा गया है।
(गिरा) निर्घोष से (वज्रः न) जैसे विद्युद्वज्र संयुक्त होता है, वैसे ही (गिरा) वेदवाणी वा प्रभावशालिनी वाणी से (सम्भृतः) संयुक्त, (सबलः) बलवान् (अनपच्युतः) अविचलित, (उग्रः) प्रचण्ड, (अस्तृतः) अहिंसित इन्द्र अर्थात् परमेश्वर, जीवात्मा वा राजा (ववक्षे) जगत् के भार को, शरीर के भार को वा राष्ट्र के भार को वहन करता है ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥
जिसकी वाणियों का प्रभाव वज्रनिर्घोष के समान होता है, वह बलियों में बली, दुष्टों के प्रति प्रचण्ड, किसी से जीता न जा सकनेवाला, शत्रुओं को जीतनेवाला जो परमेश्वर, जीवात्मा और राजा है, उसे सहायक पाकर सब लोग जीवन-सङ्ग्राम में विजयी होवें ॥३॥ इस खण्ड में पुरोहित, विद्वान् स्नातक तथा परमात्मा, जीवात्मा और राजा का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ नवम अध्याय में षष्ठ खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।
(गिरा) निर्घोषेण (वज्रः न) कुलिशः इव (गिरा) वेदवाचा प्रभावशालिन्या वा वाचा (सम्भृतः) संयुक्तः (सबलः) बलवान्, (अनपच्युतः) अविचलितः, (उग्रः) प्रचण्डः, (अस्तृतः) अहिंसितः इन्द्रः परमेश्वरो जीवात्मा नृपतिर्वा (ववक्षे) जगद्भारं देहभारं राष्ट्रभारं वा वहति। [वह प्रापणे, लडर्थे लिटि छान्दसः सुगागमः] ॥३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥
यस्य वाचां प्रभावो वज्रनिर्घोषवद् भवति स बलिनां बली, दुष्टेषु प्रचण्डः, केनाप्यजय्यः, परेषां पराजेता परमेश्वरो जीवात्मा राजा च योऽस्ति तं सहायं प्राप्य सर्वे जीवनसङ्ग्रामे विजयिनो जायन्ताम् ॥३॥ अस्मिन् खण्डे पुरोहितस्य, विदुषः स्नातकस्य, परमात्मजीवात्मनृपतीनां च विषयस्य वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥