त꣡मिन्द्रं꣢꣯ वाजयामसि म꣣हे꣢ वृ꣣त्रा꣢य꣣ ह꣡न्त꣢वे । स꣡ वृषा꣢꣯ वृष꣣भो꣡ भु꣢वत् ॥१२२२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तमिन्द्रं वाजयामसि महे वृत्राय हन्तवे । स वृषा वृषभो भुवत् ॥१२२२॥
त꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । वा꣣जयामसि । महे꣢ । वृ꣣त्रा꣡य꣢ । ह꣡न्त꣢꣯वे । सः꣣ । वृ꣡षा꣢꣯ । वृ꣣षभः꣡ । भु꣣वत् ॥१२२२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ११९ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ जीवात्मा का विषय कहते हैं।
(महे) बड़े (वृत्राय) विघ्न, विद्रोह, उपद्रव, पाप आदि रूप शत्रु का (हन्तवे) वध करने के लिए (तम्) अपने शरीर में अधिष्ठाता रूप से विद्यमान उस (इन्द्रम्) शत्रुविदारक जीवात्मा को, हम (वाजयामसि) बलवान् करते हैं। (वृषा) बलवान् (सः) वह जीवात्मा (वृषभः) सुख-सम्पदा की वर्षा करनेवाला (भुवत्) होवे ॥१॥
अपने अन्तरात्मा को उत्साहित करके सभी बाह्य और आन्तरिक शत्रु जीते जा सकते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ११९ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र जीवात्मविषय उच्यते।
(महे) महते, (वृत्राय) विघ्नविद्रोहोपद्रवपापादिरूपाय शत्रवे। [द्वितीयार्थे चतुर्थी।] (हन्तवे) हन्तुम् (तम्) स्वदेहेऽधिष्ठातृत्वेन विद्यमानम् (इन्द्रम्) रिपुविदारकं जीवात्मानम् (वाजयामसि) बलिनं कुर्मः। (वृषा) बलवान् (सः) असौ जीवात्मा (वृषभः) सुखसम्पद्वर्षकः (भुवत्) भवतु ॥१॥
स्वकीयमन्तरात्मानमुत्साह्य सर्वेऽपि बाह्या आभ्यन्तराश्च शत्रवो जेतुं शक्यन्ते ॥१॥