अ꣣या꣢ वी꣣ती꣡ परि꣢꣯ स्रव꣣ य꣡स्त꣢ इन्दो꣣ म꣢दे꣣ष्वा꣢ । अ꣣वा꣡ह꣢न्नव꣣ती꣡र्नव꣢꣯ ॥१२१०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अया वीती परि स्रव यस्त इन्दो मदेष्वा । अवाहन्नवतीर्नव ॥१२१०॥
अ꣣या꣢ । वी꣣ती꣢ । प꣡रि꣢꣯ । स्र꣣व । यः꣢ । ते꣣ । इन्दो । म꣡दे꣢꣯षु । आ । अ꣣वा꣡ह꣢न् । अ꣣व । अ꣡ह꣢꣯न् । न꣣वतीः꣢ । न꣡व꣢꣯ ॥१२१०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ४९५ क्रमाङ्क पर परमात्मा को सम्बोधन करके व्याख्या की गयी थी। यहाँ वीर मनुष्य को सम्बोधन है।
हे (इन्दो) तेज से प्रदीप्त वीर ! तू (अया वीती) इस रीति से (परि स्रव) व्यवहार कर कि (यः) जो मनुष्य (ते मदेषु आ) तेरे वीरताजनित उत्साहों के सम्पर्क में आए, वह (नवनवतीः) नब्बे-नब्बे शत्रु-योद्धाओं के नौ व्यूहों को (अवाहन्) मार गिराए ॥१॥
वीर सेनापति अपनी सेना के योद्धाओं को इस प्रकार उत्साहित करे कि वे शत्रु योद्धाओं के सैकड़ों भी व्यूहों को क्षण भर में छिन्न-भिन्न कर दें। आन्तरिक देवासुरसङ्ग्राम का सेनापति जीवात्मा भी आन्तरिक शत्रुओं को नष्ट करने के लिए ऐसा ही करे ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४९५ क्रमाङ्के परमात्मानं सम्बोध्य व्याख्याता। अत्र वीरो जनः सम्बोध्यते।
हे (इन्दो) तेजसा देदीप्त वीर ! त्वम् (अया वीती२) अनया रीत्या (परि स्रव) व्यवहर, यत् (यः) यो जनः (ते मदेषु आ) तव वीरताजनितानाम् उत्साहानां सम्पर्कं प्राप्नुयात्, सः (नवनवतीः) नवतिनवतिसंख्यकानां शत्रुयोद्धॄणां नवव्यूहान् (अवाहन्) अवहन्यात् ॥१॥
वीरः सेनापतिः स्वसेनाया भटानेवमुत्साहयेद् यत्ते प्रतिभटानां शतशोऽपि व्यूहान् क्षणेनावच्छिन्द्युः। आन्तरस्य देवासुरसंग्रामस्य चमूपतिर्जीवात्माप्यान्तरान् शत्रूनुत्सादयितुं तथैवाचरेत् ॥१॥