य꣣ज्ञ꣡ इन्द्र꣢꣯मवर्धय꣣द्य꣢꣫द्भूमिं꣣ व्य꣡व꣢र्तयत् । च꣣क्राण꣡ ओ꣢प꣣शं꣢ दि꣣वि꣢ ॥१२१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यज्ञ इन्द्रमवर्धयद्यद्भूमिं व्यवर्तयत् । चक्राण ओपशं दिवि ॥१२१॥
य꣣ज्ञः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । अ꣣वर्धयत् । य꣢त् । भू꣡मि꣢म् । व्य꣡व꣢꣯र्तयत् । वि꣣ । अ꣡व꣢꣯र्तयत् । च꣣क्राणः꣢ । ओपश꣢म् । ओ꣣प । श꣢म् । दि꣣वि꣢ ॥१२१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में, यज्ञ से ही परमेश्वर की महिमा सर्वत्र फैली हुई है, इस विषय का वर्णन करते हैं।
(यज्ञः) परोपकार के लिए किये जानेवाले महान् कर्म ने (इन्द्रम्) परमात्मा को अर्थात् उसकी महिमा को (अवर्धयत्) बढ़ाया हुआ है। परमात्मा के यज्ञ कर्म का एक दृष्टान्त यह है (यत्) कि (दिवि) द्युलोक में (ओपशम्) सूर्यरूप मुकुट को (चक्राणः) रचनेवाला वह परमात्मा (भूमिम्) भूमि को (व्यवर्तयत्) सूर्य के चारों ओर घुमा रहा है ॥७॥
परमेश्वर यज्ञ का आदर्शरूप है। उसके किये जाते हुए यज्ञ का ही उदाहरण है कि वह द्युलोक में महान् मुकुटमणि सूर्य को संस्थापित करके उसके चारों ओर भूमि को अण्डाकार मार्ग से चक्ररूप में घुमा रहा है, जिससे छहों ऋतुओं का चक्र चलता है ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ यज्ञेनैव परमेश्वरस्य महिमा सर्वत्र प्रसरतीत्याह।
(यज्ञः) परोपकाराय क्रियमाणं महत् कर्म (इन्द्रम्) परमात्मानम्, परमात्मनो महिमानमिति यावत्, (अवर्धयत्) वर्धयति। सामान्यकालार्थे लङ्। यज्ञे निदर्शनमाह—(यत्) यथा (दिवि) द्युलोके (ओपशम्२) सूर्यरूपं किरीटम्। आ आगत्य उपशेते शिरसि विराजते इति ओपशः किरीटम्। (चक्राणः) चक्रिवान् स इन्द्रः। कृधातोर्लिटः कानच्। चित्वात् चितः। अ० ६।१।१६३ इत्यन्तोदात्तत्वम्। (भूमिम्) पृथिवीम् (व्यवर्तयत्) सूर्यं परितो विवर्तयति परिक्रमयति ॥७॥
परमेश्वरो हि यज्ञस्यादर्शरूपः। तेन क्रियमाणस्य यज्ञस्यैव निदर्शनं विद्यते यत् स द्युलोके महान्तं मुकुटमणिभूतं सूर्यं संस्थाप्य तं परितः पृथिवीम् अण्डाकृतिमार्गेण चक्रतया भ्रमयति, येन षड्ऋतुचक्रं प्रवर्तते ॥७॥