उ꣢त्ते꣣ शु꣡ष्मा꣢स ईरते꣣ सि꣡न्धो꣢रू꣣र्मे꣡रि꣢व स्व꣣नः꣢ । वा꣣ण꣡स्य꣢ चोदया प꣣वि꣢म् ॥१२०५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उत्ते शुष्मास ईरते सिन्धोरूर्मेरिव स्वनः । वाणस्य चोदया पविम् ॥१२०५॥
उ꣢त् । ते꣣ । शु꣡ष्मा꣢꣯सः । ई꣣रते । सि꣡न्धोः꣢꣯ । ऊ꣣र्मेः꣢ । इ꣣व । स्वनः꣢ । वा꣣ण꣡स्य꣢ । चो꣣दय । पवि꣢म् ॥१२०५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रारम्भ में उपासक की स्तोत्रगान की पद्धति का वर्णन है।
हे भक्ति को सिद्ध करनेवाले उपासक ! (ते) तेरे (शुष्मासः) बलवान् स्तोत्रसमूह (उदीरते) उठ रहे हैं। उनकी (सिन्धोः ऊर्मेः इव) समुद्र की लहर जैसी (स्वनः) गीत की ध्वनि है। तू (वाणस्य) वीणादण्ड की (पवित्रम्) तन्त्री को (चोदय) प्रेरित कर, अर्थात् वीणा-वादन के साथ प्रभु-भक्ति के स्तोत्र तरङ्गित कर ॥१॥
मधुर गीतों के साथ जब सितार, मञ्जीरे आदि बाजे ताल-मेल पूर्वक बजाये जाते हैं, तब अपूर्व भक्ति का प्रवाह उत्तरङ्गित होता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादावुपासकस्य स्तोत्रगानपद्धतिमाह।
हे भक्तिसाधक उपासक ! (ते) तव (शुष्मासः) शुष्माः बलवन्तः स्तोत्रसमूहाः (उदीरते) उद्गच्छन्ति, तेषाम् (सिन्धोः ऊर्मेः इव) समुद्रस्य तरङ्गस्य इव (स्वनः) गीतध्वनिरस्ति। त्वम् (वाणस्य) वीणादण्डस्य (पविम्) तन्त्रीम् (चोदय) प्रेरय, वीणावादनेन प्रभुभक्तिस्तोत्राणि तरङ्गयेति भावः ॥१॥
मधुरैर्गीतैर्यदा वीणामञ्जीरादीनि वाद्यानि सलयं संवाद्यन्ते तदाऽपूर्वभक्तिप्रवाह उत्तरङ्गायते ॥१॥