अ꣣भि꣡ विप्रा꣢꣯ अनूषत꣣ गा꣡वो꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢ । इ꣢न्द्र꣣ꣳ सो꣡म꣢स्य पी꣣त꣡ये꣢ ॥११९७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अभि विप्रा अनूषत गावो वत्सं न धेनवः । इन्द्रꣳ सोमस्य पीतये ॥११९७॥
अ꣣भि꣢ । वि꣡प्राः꣢꣯ । वि । प्राः꣣ । अनूषत । गा꣡वः꣢꣯ । व꣣त्स꣢म् । न । धे꣣न꣡वः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । सो꣡म꣢꣯स्य । पी꣣त꣡ये꣢ ॥११९७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि स्तोता लोग किस प्रकार क्या करते हैं।
(विप्राः) बुद्धिमान् स्तोताजन (सोमस्य) ब्रह्मानन्द-रस के (पीतये) पान के लिए (इन्द्रम्) जीवात्मा को (अभि अनूषत) बुलाते हैं, (धेनवः) तृप्ति प्रदान करनेवाली (गावः) गौएँ अपना दूध पिलाने के लिए (वत्सं न) जैसे बछड़े को बुलाती हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
जैसे बछड़ा अपनी माता गाय का दूध पीकर तृप्त हो जाता है, वैसे ही उपासक लोग परमात्मा के आनन्द-रस को पीकर परम तृप्ति पाते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ स्तोतारः कथं किं कुर्वन्तीत्याह।
(विप्राः) मेधाविनः स्तोतारः (सोमस्य) ब्रह्मानन्दरसस्य (पीतये) पानाय (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (अभि अनूषत) आह्वयन्ति। कथमिव ? (धेनवः) प्रीणयित्र्यः (गावः) पयस्विन्यः, स्वकीयं पयः पाययितुम् (वत्सं न) यथा वत्सम् आह्वयन्ति तद्वत् ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
यथा वत्सः स्वकीयाया मातुर्दुग्धं पीत्वा तृप्तो जायते तथैवोपासका जनाः परमात्मन आनन्दरसं पीत्वा परमां तृप्तिं लभन्ते ॥२॥