सो꣡मा꣢ असृग्र꣣मि꣡न्द꣢वः सु꣣ता꣢ ऋ꣣त꣢स्य꣣ धा꣡र꣢या । इ꣡न्द्रा꣢य꣣ म꣡धु꣢मत्तमाः ॥११९६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सोमा असृग्रमिन्दवः सुता ऋतस्य धारया । इन्द्राय मधुमत्तमाः ॥११९६॥
सो꣡माः꣢꣯ । अ꣣सृग्रम् । इ꣡न्द꣢꣯वः । सु꣣ताः꣢ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । धा꣡र꣢꣯या । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । म꣡धु꣢꣯मत्तमाः ॥११९६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रारम्भ में ब्रह्मानन्द-रसों का वर्णन करते हैं।
(सुताः) रिसाये हुए, (इन्दवः) भिगोनेवाले, (मधुमत्तमाः) अतिशय मधुर (सोमाः) परमानन्द-रस (ऋतस्य) सत्य की (धारया) धारा के साथ (इन्द्राय) जीवात्मा के लिए (असृग्रम्) छोड़े जा रहे हैं ॥१॥
ब्रह्मानन्द में डूबा हुआ ही मनुष्य उसकी मधुरता का अनुभव कर सकता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ ब्रह्मानन्दरसान् वर्णयति।
(सुताः) अभिषुताः, (इन्दवः) क्लेदकाः, (मधुमत्तमाः) मधुरतमाः (सोमाः) परमानन्दरसाः (ऋतस्य) सत्यस्य (धारया) प्रवाहसन्तत्या (इन्द्राय) जीवात्मने (असृग्रम्) सृज्यन्ते ॥१॥
ब्रह्मान्दे निमग्न एव जनस्तन्माधुर्यमनुभवितुं शक्नोति ॥१॥