वा꣣श्रा꣡ अ꣢र्ष꣣न्ती꣡न्द꣢वो꣣ऽभि꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न मा꣣त꣡रः꣢ । द꣣धन्विरे꣡ गभ꣢꣯स्त्योः ॥११९३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वाश्रा अर्षन्तीन्दवोऽभि वत्सं न मातरः । दधन्विरे गभस्त्योः ॥११९३॥
वा꣣श्राः꣢ । अ꣣र्षन्ति । इ꣡न्द꣢꣯वः । अ꣣भि꣢ । व꣣त्स꣢म् । न । मा꣣त꣡रः꣢ । द꣣धन्विरे꣢ । ग꣡भ꣢꣯स्त्योः ॥११९३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमानन्द की प्राप्ति का वर्णन है।
(वाश्राः) रँभाती हुई (मातरः) गायें (वत्सं न) जैसे बछड़े की ओर जाती हैं, वैसे ही (वाश्राः) उपदेश देते हुए (इन्दवः) रस से भिगोनेवाले ब्रह्मानन्द-रस (वत्सम् अभि) प्रिय उपासक की ओर (अर्षन्ति) जाते हैं और (गभस्त्योः) बाहुओं में (दधन्विरे) धारण किये जाते हैं अर्थात् ब्रह्मानन्द-रसों की प्राप्ति होने पर उपासक भुजाओं से कर्म करने में संलग्न हो जाता है ॥७॥ यहाँ श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥७॥
ब्रह्मानन्द भी सत्कर्मों के बिना शोभा नहीं पाते ॥७॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमानन्दप्राप्तिं वर्णयति।
(वाश्राः) रम्भायमाणाः (मातरः) धेनवः (वत्सं न) वत्सं प्रति यथा गच्छन्ति तथा (वाश्राः) उपदेष्टारः [वाश्यन्ते शब्दायन्ते उपदिशन्तीति वाश्राः। वाशृ शब्दे, दिवादिः। ‘स्फायितञ्चि०’ उ० २।१३ इत्यनेन रक् प्रत्ययः।] (इन्दवः) क्लेदकाः ब्रह्मानन्दरसाः (वत्सम् अभि) प्रियम् उपासकं प्रति (अर्षन्ति) गच्छन्ति, किञ्च (गभस्त्योः) बाह्वोः [गभस्ती इति बाहुनाम। निघं० २।४।] (दधन्विरे) ध्रियन्ते। तेषां प्राप्तौ उपासकः बाहुभ्यां कर्मपरायणो जायते इत्यर्थः ॥७॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥७॥
ब्रह्मानन्दा अपि सत्कर्माणि विना न शोभन्ते ॥७॥