त꣡मिन्द्रं꣢꣯ वाजयामसि म꣣हे꣢ वृ꣣त्रा꣢य꣣ ह꣡न्त꣢वे । स꣡ वृषा꣢꣯ वृष꣣भो꣡ भु꣢वत् ॥११९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तमिन्द्रं वाजयामसि महे वृत्राय हन्तवे । स वृषा वृषभो भुवत् ॥११९॥
त꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । वा꣣जयामसि । महे꣢ । वृ꣣त्रा꣡य꣢ । ह꣡न्त꣢꣯वे । सः । वृ꣡षा꣢꣯ । वृ꣣षभः꣢ । भु꣣वत् ॥११९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में स्तोता लोग और प्रजाजन कह रहे हैं।
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (महे) विशाल, (वृत्राय) सूर्यप्रकाश और जल-वृष्टि को रोकनेवाले मेघ के समान धर्म के बाधक पाप को (हन्तवे) नष्ट करने के लिए (तम्) उस प्रसिद्ध (इन्द्रम्) महापराक्रमी परमात्मा की हम (वाजयामसि) पूजा करते हैं। (वृषा) वर्षक (सः) वह परमेश्वर (वृषभः) धर्म की वर्षा करनेवाला (भुवत्) होवे ॥५॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (महे वृत्राय) महान् शत्रु को (हन्तवे) मारने के लिए, हम (तम्) प्रजा से निर्वाचित उस (इन्द्रम्) अत्यन्त वीर राजा को (वाजयामसि) सहायता-प्रदान द्वारा बलवान् बनाते हैं, अथवा उत्साहित करते हैं। (वृषा) मेघतुल्य (सः) वह राजा (वृषभः) शत्रुओं के ऊपर आग्नेयास्त्रों की और प्रजा के ऊपर सुखों की वर्षा करनेवाला (भुवत्) होवे ॥५॥ इस मन्त्र में वृषा, वृष में छेकानुप्रास अलङ्कार है। वृषा वृषभः दोनों शब्द बैल के वाचक होने से पुनरुक्तवदाभास अलङ्कार भी है, यौगिक अर्थ करने से प्रतीयमान पुनरुक्ति का समाधान हो जाता है ॥५॥
अनावृष्टि के दिनों में बादल जैसे सूर्य के प्रकाश को और जल को नीचे आने से रोककर भूमि पर अन्धकार और अवर्षण उत्पन्न कर देता है, वैसे ही पापविचार और पापकर्म भूमण्डल में प्रसार प्राप्त कर सत्य के प्रकाश को और धर्मरूप स्वच्छ जल को रोककर असत्य का अन्धकार और अधर्मरूप अवर्षण उत्पन्न कर देते हैं। इन्द्र नामक परमेश्वर जैसे मेघरूप वृत्र को मारकर सूर्य के प्रकाश को तथा वर्षाजल को निर्बाधगति से भूमि के प्रति प्रवाहित करता है, वैसे ही पापरूप वृत्र का विनाश कर संसार में सत्य के प्रकाश को और धर्म की वर्षा को मुक्तहस्त से प्रवाहित करे, जिससे सब भूमण्डल-निवासी लोग सत्य-ज्ञान और सत्य-आचरण में तत्पर तथा धार्मिक होकर अत्यन्त सुखी हों। इसी प्रकार राष्ट्र में राजा का भी कर्त्तव्य है कि दुष्ट शत्रुओं को विनष्ट कर सुख उत्पन्न करे ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ स्तोतारः प्रजाजनाश्चाहुः।
प्रथमः—परमात्मपक्षे। (महे) महते (वृत्राय) सूर्यप्रकाशस्य जलस्य स (आवरकाय) मेघाय इव धर्मावरकाय पाप्मने। पाप्मा वै (वृत्रः)। श० ११।१।५।७ द्वितीयार्थे चतुर्थी। महान्तं पाप्मानमित्यर्थः। वृत्रो वृणोतेः.... यदवृणोत् तद् वृत्रस्य वृत्रत्वमिति विज्ञायते। निरु० २।७। (हन्तवे) हन्तुम्। तुमर्थे सेसेन्०।’ अ० ३।४।९ इति हन् धातोः तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। तस्य नित्यत्वाद् हन्तवे इति पदस्य ञ्नित्यादिर्नित्यम् अ० ६।१।१९७ इत्याद्युदात्तत्वम्। (तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रम्) महावीरं परमेश्वरं (वाजयामसि) अर्चयामः। वाजयति अर्चतिकर्मा। निघं० ३।१४। इदन्तो मसि अ० ७।१।४६ इति मसः इदन्तत्वम्। (वृषा) वर्षकः (सः) परमेश्वरः (वृषभः२) धर्मस्य वृष्टिकर्त्ता (भुवत्) भवतु। लेटि बहुलं छन्दसि। अ० २।४।७३ इति शपो लुकि भूसुवोस्तिङि। अ० ७।३।८८ इति गुणनिषेधः। अथ द्वितीयः—राजपक्षे। (महे वृत्राय) महते शत्रवे, महान्तं शत्रुमित्यर्थः। (हन्तवे) हन्तुम्, वयम् (तम्) प्रजाभिर्निर्वाचितम् (इन्द्रम्) सुवीरं राजानम् (वाजयामसि३) निजसाहाय्यप्रदानेन बलिनं कुर्मः प्रोत्साहयामो वा। (वृषा) मेघतुल्यः (सः) असौ राजा (वृषभः) शत्रूणामुपरि आग्नेयास्त्राणां वर्षकः प्रजानामुपरि च सुखवर्षकः (भुवत्) भवेत् ॥५॥ अत्र वृषा, वृष इत्यत्र छेकानुप्रासः। वृषा-वृषभः इत्युभयोः बलीवर्दवाचकत्वाद् पुनरुक्तवदाभासोऽपि, यौगिकार्थनिष्पत्त्या च प्रतीयमानायाः पुनरुक्तेः परिहारः ॥५॥
अनावृष्टिदिवसेषु मेघो यथा सूर्यप्रकाशं जलं चावृण्वन् भूम्यामन्धकारम् अवर्षणं च जनयति, तथैव पापविचाराः पापकर्माणि च भूमण्डले प्रसारं प्राप्य सत्यस्य प्रकाशं धर्मरूपं स्वच्छोदकं चावृत्याऽसत्यान्धकारम् अधर्मरूपमवर्षणं च जनयन्ति। इन्द्राख्यः परमेश्वरो यथा मेघरूपं वृत्रं हत्वा सूर्य-प्रकाशं वृष्टिजलं च निर्बाधगत्या भूमिं प्रति प्रवाहयति, तथैव स पापरूपं वृत्रं विनाश्य जगति सत्यस्य प्रकाशं धर्मस्य वृष्टिं चोन्मुक्तरूपेण प्रवाहयेत्, येन सर्वे भूमण्डलनिवासिनः सत्यज्ञान-सत्याचारपरायणा धार्मिकाश्च भूत्वा परमसुखिनो भवेयुः। तथैव राष्ट्रे नृपतेरपि कर्त्तव्यं यत्स दुष्टान् शत्रून् हत्वा सुखं जनयेदिति ॥५॥