दे꣣वे꣡भ्य꣢स्त्वा꣣ म꣡दा꣢य꣣ क꣡ꣳ सृ꣢जा꣣न꣡मति꣢꣯ मे꣣꣬ष्यः꣢꣯ । सं꣡ गोभि꣢꣯र्वासयामसि ॥११८२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)देवेभ्यस्त्वा मदाय कꣳ सृजानमति मेष्यः । सं गोभिर्वासयामसि ॥११८२॥
देवे꣡भ्यः꣢꣯ । त्वा꣣ । म꣡दा꣢꣯य । कम् । सृ꣣जान꣢म् । अ꣡ति꣢꣯ । मे꣣ष्यः꣢꣯ । सम् । गो꣡भिः꣢꣯ । वा꣣सयामसि ॥११८२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब जगदीश्वर को सम्बोधन करते हैं।
हे सोम अर्थात् जगत्स्रष्टा परमेश्वर ! (मेष्यः) सींचनेवाली आनन्द-धाराएँ (अति सृजानम्) छोड़ते हुए, (कम्) सुखस्वरूप (त्वा) तुझे (देवेभ्यः) आत्मा, मन बुद्धि आदि के (मदाय) हर्ष के लिए हम (गोभिः) स्तुति-वाणियों से (संवासयामसि) संछादित करते हैं ॥५॥
जगत्पति परमेश्वर उपासकों को आनन्द की धाराओं से सींचता हुआ और उनके आत्मा, मन, बुद्धि आदियों को तृप्त करता हुआ उनका उपकार करता है ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जगदीश्वरः सम्बोध्यते।
हे सोम जगत्स्रष्टः परमेश्वर ! (मेष्यः) मेषीः सेक्त्रीः आनन्दधाराः। [मिषु सेचने, भ्वादिः। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति पूर्वसवर्णदीर्घविकल्पनाद् यणि रूपम्।] (अति सृजानम्) विसृजन्तम्, (कम्) सुखस्वरूपम् (त्वा) त्वाम् (देवेभ्यः) आत्ममनोबुद्ध्यादिभ्यः। [षष्ठ्यर्थे चतुर्थी।] (मदाय) हर्षाय, वयम् (गोभिः) स्तुतिवाग्भिः (सं वासयामसि) सञ्छादयामः। [वस आच्छादने, णिजन्तः, इदन्तो मसि] ॥५॥
जगत्पतिः परमेश्वर उपासकानानन्दधाराभिः सिञ्चंस्तेषामात्ममनोबुद्ध्यादीनि च तर्पयंस्तानुपकरोति ॥५॥