य꣡दि꣢न्द्र चित्र म इ꣣ह꣢꣫ नास्ति꣣ त्वा꣡दा꣢तमद्रिवः । रा꣢ध꣣स्त꣡न्नो꣢ विदद्वस उभयाह꣣स्त्या꣡ भ꣢र ॥११७२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यदिन्द्र चित्र म इह नास्ति त्वादातमद्रिवः । राधस्तन्नो विदद्वस उभयाहस्त्या भर ॥११७२॥
य꣢त् । इ꣣न्द्र । चित्र । मे । इह꣢ । न । अ꣡स्ति꣢꣯ । त्वा꣡दा꣢꣯तम् । त्वा । दा꣣तम् । अद्रिवः । अ । द्रिवः । रा꣡धः꣢꣯ । तत् । नः꣣ । विदद्वसो । विदत् । वसो । उभयाहस्ति । आ । भर ॥११७२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३४५ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में की गयी थी। यहाँ परमात्मा और आचार्य का विषय दर्शाया जा रहा है।
हे (चित्र) अद्भुत, (अद्रिवः) अविनष्ट गुणोंवाले (विदद्वसो) प्राप्त ऐश्वर्यवाले (इन्द्र) जगदीश्वर वा आचार्य ! (त्वादातम्) आपसे शोधित (यत् राधः) जो आत्मबल, धर्म, विद्या आदि का धन (मे) मेरे पास (इह) यहाँ (न अस्ति) नहीं है, (तत्) वह धन, आप (उभयाहस्ति) जैसे दोनों हाथों से किसी को दिया जाता है, वैसे (नः) हमें (आ भर) दीजिए ॥१॥
परमेश्वर और आचार्य की कृपा से शुद्ध दिव्य और भौतिक धन के हम अधिपति हो जाएँ ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३४५ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र परमात्मन आचार्यस्य च विषयो निरूप्यते।
हे (चित्र) अद्भुत, (अद्रिवः) अविदीर्णगुण। [न केनापि दीर्यते यस्तत्सम्बुद्धौ।] (विदद्वसो) लब्धधन (इन्द्र) जगदीश आचार्य वा ! (त्वादातम्) त्वया शोधितम्। [दातम् दैप् शोधने, निष्ठा।] (यत् राधः) यद् आत्मबलधर्मविद्यादिधनम् (मे) मम (इह) अत्र (न अस्ति) न विद्यते, (तत्) धनम् त्वम् (उभयाहस्ति) उभाभ्यां हस्ताभ्यां यथा कस्मैचिद् दीयते तथा (नः) अस्मभ्यम् (आ भर) आहर ॥१॥२ यास्काचार्येण मन्त्रोऽयं निरुक्ते ४।४ इत्यत्र व्याख्यातः।
परमेशस्याचार्यस्य च कृपया शुद्धस्य भौतिकस्य च धनस्य वयमधिपतयः स्याम ॥१॥ परमेश्वर और आचार्य की कृपा से शुद्ध दिव्य और भौतिक धन के हम अधिपति हो जाएँ ॥१॥