त्वं꣡ न꣢ इ꣣न्द्रा꣡ भ꣢र꣣ ओ꣡जो꣢ नृ꣣म्ण꣡ꣳ श꣢तक्रतो विचर्षणे । आ꣢ वी꣣रं꣡ पृ꣢तना꣣स꣡ह꣢म् ॥११६९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वं न इन्द्रा भर ओजो नृम्णꣳ शतक्रतो विचर्षणे । आ वीरं पृतनासहम् ॥११६९॥
त्व꣢म् । नः꣣ । इन्द्र । आ꣢ । भ꣣र । ओ꣡जः꣢꣯ । नृ꣣म्ण꣢म् । श꣣तक्रतो । शत । क्रतो । विचर्षणे । वि । चर्षणे । आ꣢ । वी꣣र꣢म् । पृ꣣तनास꣡ह꣢म् । पृतना । सहम् ॥११६९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४०५ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ क्षात्रधर्म के शिक्षक आचार्य को कह रहे हैं।
हे (शतक्रतो) बहुत बुद्धिमान्, (विचर्षणे) शिष्यों पर दृष्टि रखनेवाले, (इन्द्र) क्षात्रधर्म के शिक्षक आचार्य ! (त्वम्) आप (नः) हमें (ओजः) उत्साह और (नृम्णम्) बल (आ भर) प्रदान कीजिए। साथ ही (पृतनासहम्) शत्रु सेनाओं को हरानेवाला (वीरम्) वीर क्षत्रिय योद्धा (आ) प्रदान कीजिए ॥१॥
उस-उस विद्या में निष्णात गुरु ही ब्राह्मण, क्षत्रिय वा वैश्य राष्ट्र के लिए उत्पन्न करता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४०५ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र क्षात्रधर्मशिक्षक आचार्य उच्यते।
हे (शतक्रतो) बहुप्रज्ञ, (विचर्षणे) शिष्याणां द्रष्टः (इन्द्र) क्षात्रधर्मशिक्षक आचार्य ! (त्वम् नः) अस्मभ्यम् (ओजः) उत्साहम् (नृम्णम्) बलं च (आ भर२) आहर। अपि च (पृतनासहम्) शत्रुसेनापराजेतारम् (वीरम्) शूरं क्षत्रियं योद्धारम् (आ) आहर ॥१॥
तत्तद्विद्यानिष्णातो गुरुरेव ब्राह्मणं वा क्षत्रियं वा वैश्यं वा राष्ट्राय जनयति ॥१॥