आ꣡ ते꣢ व꣣त्सो꣡ मनो꣢꣯ यमत्पर꣣मा꣡च्चि꣢त्स꣣ध꣡स्था꣢त् । अ꣢ग्ने꣣ त्वां꣡ का꣢मये गि꣣रा꣢ ॥११६६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ ते वत्सो मनो यमत्परमाच्चित्सधस्थात् । अग्ने त्वां कामये गिरा ॥११६६॥
आ꣢ । ते꣣ । वत्सः꣢ । म꣡नः꣢꣯ । य꣣मत् । परमा꣢त् । चि꣣त् । सध꣡स्धा꣢त् । स꣣ध꣢ । स्था꣣त् । अ꣡ग्ने꣢꣯ । त्वाम् । का꣣मये । गिरा꣢ ॥११६६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ८ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ भी उसी विषय को दर्शाते हैं।
हे (अग्ने) अग्रनायक, सर्वज्ञ, तेजस्वी परमात्मन् ! मैं (गिरा) स्तुति-वाणी से (त्वाम् कामये) तुझे चाहता हूँ। (ते वत्सः) तेरा पुत्र तुझे पाने के लिए (परमात् चित्) सुदूर भी (सधस्थात्) लोक से (मनः) अपने मन को (आयमत्) लौटा लाया है ॥१॥
समीप वा दूर जहाँ-कहीं भी मेरा मन चला गया है, वहाँ से उसे लौटाकर परमात्मा में ही केन्द्रित करता हूँ ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ८ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्रापि स एव विषयः प्रदर्श्यते।
हे (अग्ने) अग्रनायक, सर्वज्ञ, तेजोमय परमात्मन् ! अहम् (गिरा) स्तुतिवाचा (त्वाम् कामये) त्वाम् इच्छामि। (ते वत्सः) त्वदीयः पुत्रः, त्वत्प्राप्त्यर्थम् (परमात् चित्) सुदूरादपि (सधस्थात्) लोकात् (मनः) स्वकीयं मानसम् (आयमत्) उप रमयति, प्रत्यावर्तयति ॥१॥२
अन्तिके वा दूरे वा यत्र कुत्रापि मे मनो गतं ततस्तत् प्रत्यावर्त्य परमात्मन्येव केन्द्रयामि ॥१॥