प्र꣢ वा꣣꣬ज्य꣢꣯क्षाः स꣣ह꣡स्र꣢धारस्ति꣣रः꣢ प꣣वि꣢त्रं꣣ वि꣢꣫ वार꣣म꣡व्य꣢म् ॥११६०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र वाज्यक्षाः सहस्रधारस्तिरः पवित्रं वि वारमव्यम् ॥११६०॥
प्र꣢ । वा꣣जी꣢ । अ꣣क्षारि꣡ति꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢धारः । स꣣ह꣡स्र꣢ । धा꣣रः । तिरः꣢ । प꣣वि꣡त्र꣢म् । वि । वा꣡र꣢꣯म् । अ꣡व्य꣢꣯म् ॥११६०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में ज्ञानरस का विषय कहा जा रहा है।
(वाजी) बलवान् (सहस्रधारः) अनन्त धाराओंवाला पवमान सोम अर्थात् पवित्र करनेवाला ज्ञानरस(पवित्रम्) पवित्र मन को (तिरः) पार करके (अव्यम्) अविनश्वर (वारम्) दोषनिवारक जीवात्मा के प्रति (प्र वि अक्षाः) उत्तम प्रकार से विविधरूप में क्षरित हो रहा है ॥१॥
आचार्य से प्रवाहित होता हुआ विज्ञानरस मन के माध्यम से जीवात्मा में प्रविष्ट होकर उसे पवित्र और विद्वान् बना देता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ ज्ञानरसविषय उच्यते।
(वाजी) बलवान्, (सहस्रधारः) अनन्तधारः पवमानः सोमः पवित्रकारी ज्ञानरसः (पवित्रम्) पूतं मनः(तिरः) पारं कृत्वा (अव्यम्) अव्ययम् अविनश्वरम् (वारम्) दोषनिवारकं जीवात्मानं प्रति (प्र वि अक्षाः) प्रकर्षेण विविधं क्षरति। [अक्षाः क्षरति। निरु० ५।३] ॥१॥
आचार्यात् प्रवहन् विज्ञानरसो मनोमाध्यमेन जीवात्मानं प्रविश्य तं पुनाति विद्वांसं च करोति ॥१॥