न꣢ कि꣣ष्टं꣡ कर्म꣢꣯णा नश꣣द्य꣢श्च꣣का꣡र꣢ स꣣दा꣡वृ꣢धम् । इ꣢न्द्रं꣣ न꣢ य꣣ज्ञै꣢र्वि꣣श्व꣡गू꣢र्त꣣मृ꣡भ्व꣢स꣣म꣡धृ꣢ष्टं धृ꣣ष्णु꣡मोज꣢꣯सा ॥११५५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)न किष्टं कर्मणा नशद्यश्चकार सदावृधम् । इन्द्रं न यज्ञैर्विश्वगूर्तमृभ्वसमधृष्टं धृष्णुमोजसा ॥११५५॥
न꣢ । किः꣣ । त꣢म् । क꣡र्म꣢꣯णा । न꣣शत् । यः꣢ । च꣣का꣡र꣢ । स꣣दा꣡वृ꣢धम् । स꣣दा꣢ । वृ꣣धम् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । न । य꣣ज्ञैः꣢ । वि꣣श्व꣡गू꣢र्तम् । वि꣣श्व꣢ । गू꣣र्तम् । ऋ꣡भ्व꣢꣯सम् । अ꣡धृ꣢꣯ष्टम् । अ । धृ꣣ष्टम् । धृष्णु꣢म् । ओ꣡ज꣢꣯सा ॥११५५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २४३ क्रमाङ्क पर परमेश्वर के महत्त्व के विषय में की गयी थी। यहाँ फिर वही विषय प्रदर्शित किया जा रहा है।
(तम्) उस प्रसिद्ध (इन्द्रम्) जगदीश्वर को (कर्मणा) कर्म से (न किः) कोई नहीं (नशन्) प्राप्त कर सकता है, अर्थात् कोई भी उसकी कर्म में बराबरी नहीं कर सकता है, (यः) जिस जगदीश्वर ने (सदावृधम्) सदा बढ़ते रहनेवाले इस ब्रह्माण्ड को (चकार) उत्पन्न किया है। (न) न ही (विश्वगूर्तम्) सर्वोन्नत, (ऋभ्वसम्) अत्यधिक भासमान, (अधृष्टम्) अपराजित, (ओजसा) प्रताप से (धृष्णुम्) दूसरों को पराजित करनेवाले उस जगदीश्वर की (यज्ञैः) जगत् के उत्पादन, धारण, पालन आदि यज्ञों में (नशत्) कोई बराबरी कर सकता है ॥१॥
परमात्मा के तुल्य कर्म करनेवाला और परमात्मा के तुल्य यज्ञ करनेवाला संसार में न कोई हुआ है, न है, न भविष्य में होगा ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २४३ क्रमाङ्के परमेश्वरमहत्त्वविषये व्याख्याता। अत्र पुनरपि स एव विषयः प्रदर्श्यते।
(तम्) प्रसिद्धम् (इन्द्रम्) जगदीश्वरम् (कर्मणा) कार्येण (न किः) न कोऽपि (नशत्) व्याप्नोति, न कोऽपि कर्मणि तत्तुल्यो भवतीत्यर्थः, (यः) जगदीश्वरः (सदावृधम्) सदावृद्धिशीलम् इदं ब्रह्माण्डम् (चकार) ससर्ज। (न) नैव कोऽपि (विश्वगूर्तम्) विश्वगूर्णं सर्वोन्नतम्, (ऋभ्वसम्) उरु भासमानम्२, (अधृष्टम्) अपराजितम्, (ओजसा) प्रतापेन (धृष्णुम्) परेषां पराजेतारं च तम् इन्दुं जगदीश्वरम्, (यज्ञैः) जगत्सर्जनधारणपालनादिभिः (नशत्) व्याप्नोति, तत्तुल्यो भवति ॥१॥
परमात्मतुल्यकर्मा परमात्मतुल्ययज्ञश्च जगति कोऽपि न भूतो, न वर्तते, न भविष्यति ॥१॥