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य꣢ इ꣣द्ध꣢ आ꣣वि꣡वा꣢सति सु꣣म्न꣡मिन्द्र꣢꣯स्य꣣ म꣡र्त्यः꣢ । द्यु꣣म्ना꣡य꣢ सु꣣त꣡रा꣢ अ꣣पः꣢ ॥११५०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

य इद्ध आविवासति सुम्नमिन्द्रस्य मर्त्यः । द्युम्नाय सुतरा अपः ॥११५०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः । इ꣣द्धे꣢ । आ꣣वि꣢वा꣢सति । आ꣣ । वि꣡वा꣢꣯सति । सु꣣म्न꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । म꣡र्त्यः꣢꣯ । द्यु꣣म्ना꣡य꣢ । सु꣣त꣡राः꣢ । सु꣣ । त꣡राः꣢꣯ । अ꣣पः꣢ ॥११५०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1150 | (कौथोम) 4 » 2 » 6 » 2 | (रानायाणीय) 8 » 3 » 4 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि अग्नि में परमेश्वर की ही दी हुई ज्योति है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यः मर्त्यः) जो मनुष्य (इद्धे) अग्नि के प्रदीप्त होने पर (इन्द्रस्य) परमात्मा के (सुम्नम्) सुखदायक दान की (आ विवासति) प्रशंसा करता है, वह (द्युम्नाय) तेज और यश के लिए (अपः) विकट भी कर्मों को (सुतराः) आसानी से सिद्ध होनेवाला कर लेता है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

प्रज्वलित अग्नि में उसकी अपनी ज्योति नहीं है, प्रत्युत परमात्मा की ही है, ऐसा जो मानता है, वह परमात्मा का आराधक होता हुआ तेजस्वी और यशस्वी बनता है। पर जो भौतिकवादी होता है, वह भौतिक पदार्थों में ही रमता हुआ भोगों से ही भोगा जाता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथाग्नौ परमेश्वरप्रदत्तमेव ज्योतिरस्तीत्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(यः मर्त्यः) यो मनुष्यः (इद्धे) अग्नौ प्रदीप्ते सति (इन्द्रस्य) परमात्मनः (सुम्नम्) सुखकरं दानम् (आ विवासति) परिचरति, प्रशंसतीत्यर्थः, सः (द्युम्नाय) तेजसे यशसे च (अपः) विकटान्यपि कर्माणि (सुतराः) सुतराणि, सुसाध्यानि करोति ॥२॥२

भावार्थभाषाः -

समिद्धेऽग्नौ तस्य स्वकीयं ज्योतिर्नास्ति प्रत्युत परमात्मन एवेति यो मन्यते स परमात्माराधकः सन् तेजस्वी यशस्वी च जायते। यस्तु भौतिकवादी स भौतिकेष्वेव पदार्थेषु रममाणो भोगैरेव भुज्यते ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ६।६०।११। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं मनुष्यैर्यशसे धनाय च किं सेवितव्यमिति विषये व्याचष्टे।