त꣡द्वो꣢ गाय सु꣣ते꣡ सचा꣢꣯ पुरुहू꣣ता꣢य꣣ स꣡त्व꣢ने । शं꣢꣫ यद्गवे꣣ न꣢ शा꣣कि꣡ने꣢ ॥११५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तद्वो गाय सुते सचा पुरुहूताय सत्वने । शं यद्गवे न शाकिने ॥११५॥
त꣢त् । वः꣣ । गाय । सुते꣢ । स꣡चा꣢꣯ । पु꣣रुहूता꣡य꣣ । पु꣣रु । हूता꣡य꣢ । स꣡त्व꣢꣯ने । शम् । यत् । ग꣡वे꣢꣯ । न꣢ । शा꣣कि꣡ने꣢ ॥११५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में इन्द्र परमेश्वर के प्रति स्तोत्र-गान के लिए मनुष्यों को प्रेरित किया गया है।
हे उपासको ! (वः) तुम (सुते) श्रद्धा-रूप सोमरस के अभिषुत होने पर (सचा) साथ मिलकर (पुरुहूताय) बहुत या बहुतों से स्तुति किये गये (सत्वने) बलशाली इन्द्र परमात्मा के लिए (तत्) वह स्तोत्र (गाय) गान करो, (यत्) जो (शाकिने) शाक अर्थात् घास-चारे से युक्त (गवे न) बैल के समान (शाकिने) शक्तिशाली (गवे) स्तोता के लिए (शम्) सुख-शान्ति को देनेवाला हो। आशय यह है कि जैसे बैल के लिए घास-चारा सुखकर होता है, वैसे वह स्तोत्र स्तोता के लिए सुखकर हो ॥१॥ इस मन्त्र में ‘गवे न शाकिने’ में श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥१॥
स्तुति करने से परमात्मा को कुछ उपलब्धि नहीं होती, प्रत्युत स्तुतिकर्ता को ही आत्मा में सुख, शान्ति और बल प्राप्त होता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥३॥ अथ ‘तद्वो गाय’ इत्याद्याया दशतेः तत्रादौ इन्द्रं प्रति स्तोत्राणि गातुं जनाः प्रेर्यन्ते।
हे उपासकाः ! (वः२) यूयम् (सुते) श्रद्धारूपे सोमरसेऽभिषुते सति। षुञ् अभिषवे, निष्ठायां रूपम्। (सचा) संभूय। सचा सहेत्यर्थः। निरु० ५।५। (पुरुहूताय) बहुस्तुताय, बहुभिः स्तुताय वा। पुरु इति बहुनाम। निघं० ३।१। हूतः, ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च। (सत्वने३) बलशालिने इन्द्राय परमात्मने (तत्) स्तोत्रम् (गाय) गायत। ‘लोपस्त आत्मनेपदेषु।’ अ० ७।१।४१ इत्यात्मनेपदे विहितस्तलोपोऽत्र बाहुलकात् परस्मैपदेऽपि भवति। (यत्) स्तोत्रम् (शाकिने) शाको यवसम् अस्यास्तीति शाकी तस्मै (गवे४ न) वृषभाय इव (शाकिने५) शक्तिमते। शक्लृ शक्तौ। शाकः शक्तिरस्यास्तीति शाकी तस्मै। (गवे) स्तोत्रे। गौः इति स्तोतृनामसु पठितम्। निघं० ३।१६। (शम्) सुखशान्तिकरं भवेदिति शेषः। वृषभाय यथा यवसादिकं सुखकरं भवति तथा स्तोत्रं सुखकरं भवेदित्याशयः ॥१॥ अत्र गवे न शाकिने इत्यत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥१॥
स्तुत्या परमात्मनो न काचिदुपलब्धिर्भवति, प्रत्युत स्तोतुरेवात्मनि सुखं शान्तिर्बलं चोपजायते ॥१॥