स꣣म्रा꣢जा꣣ या꣢ घृ꣣त꣡यो꣢नी मि꣣त्र꣢श्चो꣣भा꣡ वरु꣢꣯णश्च । दे꣣वा꣢ दे꣣वे꣡षु꣢ प्रश꣣स्ता꣢ ॥११४४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सम्राजा या घृतयोनी मित्रश्चोभा वरुणश्च । देवा देवेषु प्रशस्ता ॥११४४॥
स꣣म्रा꣡जा꣢ । स꣣म् । रा꣡जा꣢꣯ । या । घृ꣣त꣡यो꣢नी । घृ꣣त꣢ । यो꣣नी꣢इति । मि꣣त्रः꣢ । मि꣢ । त्रः꣣ । च । उभा꣢ । व꣡रु꣢꣯णः । च꣣ । देवा꣢ । दे꣣वे꣡षु꣢ । प्र꣣शस्ता꣢ । प्र꣣ । शस्ता꣢ ॥११४४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का कथन है।
(या) जो (सम्राजा) सम्राट् और (घृतयोनी) तेज के घर (मित्रः च वरुणः च) परमात्मा और जीवात्मा (उभा) दोनों (देवा) प्रकाशक और (देवेषु) प्रकाश करनेवाले अग्नि, सूर्य, बिजली आदि के बीच (प्रशस्ता) प्रशस्त हैं, उनके लिए (गायत) गुण-गान करो। [‘गायत’ पद पूर्व मन्त्र से यहाँ लाया गया है] ॥२॥
जैसे परमेश्वर विश्वब्रह्माण्ड का सम्राट् है, वैसे ही जीवात्मा शरीर का सम्राट् है। दोनों के प्रकाश को पाकर मनुष्य को महान् बनना योग्य है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
(या) यौ (सम्राजा) सम्राजौ, (घृतयोनी) तेजोगृहौ च (मित्रः च वरुणः च) परमात्मा च जीवात्मा च (उभा) उभौ (देवा) देवौ, प्रकाशकौ, (देवेषु) प्रकाशकेषु च अग्निसूर्यविद्युदादिषु मध्ये (प्रशस्ता) प्रशस्तौ स्तः, ताभ्याम् (गायत) गुणगानं कुरुत। [‘गायत’ इति पदं पूर्वमन्त्रादानीतम्] ॥२॥२
यथा परमेश्वरो विश्वब्रह्माण्डस्य सम्राट् तथा जीवात्मा देहस्य सम्राडस्ति। उभयोः प्रकाशं प्राप्य मनुष्यो महान् भवितुमर्हति ॥२॥