प꣡व꣢मानो अ꣣भि꣢꣫ स्पृधो꣣ वि꣢शो꣣ रा꣡जे꣢व सीदति । य꣡दी꣢मृ꣣ण्व꣡न्ति꣢ वे꣣ध꣡सः꣢ ॥११३२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवमानो अभि स्पृधो विशो राजेव सीदति । यदीमृण्वन्ति वेधसः ॥११३२॥
प꣡व꣢꣯मानः । अ꣣भि꣢ । स्पृ꣡धः꣢꣯ । वि꣡शः꣢꣯ । रा꣡जा꣢꣯ । इ꣣व । सीदति । य꣢त् । ई꣣म् । ऋण्व꣡न्ति꣢ । वे꣣ध꣡सः꣢ ॥११३२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर गुरु-शिष्य का ही विषय है।
(यत्) जब (ईम्) इस आचार्य को (वेधसः) अन्य विद्वान् गुरु (ऋण्वन्ति) प्राप्त होते हैं, तब यह (विशः) प्रजाओं को (राजा इव) जैसे राजा वैसे (पवमानः) पवित्र आचरणवाला करता हुआ (स्पृधः) विद्यायज्ञ में विघ्न डालनेवाले स्पर्धालुओं को (अभि सीदति) दूर कर देता है ॥५॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥५॥
आचार्य दूसरे सुयोग्य गुरुजनों की सहायता से ही छात्रों को विद्वान् और पवित्र हृदयवाला करने में समर्थ होता है ॥५॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनर्गुरुशिष्यविषयमेवाह।
(यत्) यदा (ईम्) एनम् आचार्यम् (वेधसः) विद्वांस अन्ये गुरवः (ऋण्वन्ति) प्राप्नुवन्ति, तदा अयम् (विशः) प्रजाजनान् राजा इव नृपतिरिव, शिष्यान् (पवमानः) पवित्राचरणान् कुर्वन् (स्पृधः) स्पर्धमानान् विद्यायागविघ्नकारिणः (अभि सीदति) अभिभवति ॥५॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥५॥
आचार्य इतरेषां सुयोग्यानां गुरुजनानां साहाय्येनैव छात्रान् विदुषः पवित्रहृदयांश्च कर्त्तुं पारयति ॥५॥ आचार्य दूसरे सुयोग्य गुरुजनों की सहायता से ही छात्रों को विद्वान् और पवित्र हृदयवाला करने में समर्थ होता है ॥५॥