प꣢रि꣣ य꣡त्काव्या꣢꣯ क꣣वि꣢र्नृ꣣म्णा꣡ पु꣢ना꣣नो꣡ अर्ष꣢꣯ति । स्व꣢꣯र्वा꣣जी꣡ सि꣢षासति ॥११३१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)परि यत्काव्या कविर्नृम्णा पुनानो अर्षति । स्वर्वाजी सिषासति ॥११३१॥
प꣡रि꣢꣯ । यत् । का꣡व्या꣢꣯ । क꣣विः꣢ । नृ꣣म्णा꣢ । पु꣣नानः꣢ । अ꣡र्ष꣢꣯ति । स्वः꣢ । वा꣣जी꣢ । सि꣣षासति ॥११३१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर वही विषय है।
(कविः) क्रान्तद्रष्टा, बुद्धिमान्, कविहृदय, विद्वान् आचार्य (नृम्णा) बलों को (पुनानः) पवित्र करता हुआ (यत्) जब (काव्या) वेदादि काव्यों की (परि अर्षति) व्याख्या करता है, तब (वाजी) बलवान् और विज्ञानवान् वह शिष्यों को (स्वः) आनन्द (सिषासति)प्रदान करना चाहता है ॥४॥
विद्वान् आचार्य की वेदादिशास्त्रों की व्याख्या शिष्यों को परमानन्द देनेवाली और उनकी ज्ञानवृद्धि करनेवाली होती है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
(कविः) क्रान्तद्रष्टा मेधावी कविहृदयः सोमः विद्वान् आचार्यः (नृम्णा) नृम्णानि बलानि (पुनानः) पवित्रयन् (यत्) यदा (काव्या) वेदादिकाव्यानि (परि अर्षति) व्याख्याति, तदा (वाजी) बलविज्ञानवान् सः शिष्येभ्यः (स्वः) आनन्दम् (सिषासति) प्रदातुमिच्छति। [षण सम्भक्तौ षणु दाने वा धातोः सनि रूपम्] ॥४॥
विदुष आचार्यस्य वेदादिशास्त्रव्याख्यानं शिष्येभ्यः परमानन्दकरं ज्ञानवर्धकं च जायते ॥४॥