प्र꣢ यु꣣जा꣢ वा꣣चो꣡ अ꣢ग्रि꣣यो꣡ वृषो꣢꣯ अचिक्रद꣣द्व꣡ने꣢ । स꣢द्मा꣣भि꣢ स꣣त्यो꣡ अ꣢ध्व꣣रः꣢ ॥११३०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र युजा वाचो अग्रियो वृषो अचिक्रदद्वने । सद्माभि सत्यो अध्वरः ॥११३०॥
प्र । यु꣣जा꣢ । वा꣣चः꣢ । अ꣣ग्रियः꣢ । वृ꣡षा꣢꣯ । उ꣣ । अचिक्रदत् । व꣡ने꣢꣯ । स꣡द्म꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । स꣣त्यः꣢ । अ꣣ध्व꣢रः ॥११३०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह बताया गया है कि कैसा गुरु क्या करता है।
(अग्रियः) श्रेष्ठ, (वृषा) ज्ञान की वर्षा करनेवाला, (सत्यः) सत्यनिष्ठ, (अध्वरः) यज्ञमय जीवनवाला विद्वान् गुरु (वने) जंगल में (सद्म अभि) गुरुकुलरूप घर में (वाचः युजा) वाणी के योग से (उ) निश्चय ही (प्र अचिक्रदत्) शिष्यों को कर्त्तव्यों का उपदेश करता है ॥३॥
पर्वतों के एकान्त में नदियों के सङ्गम पर गुरुकुलों का संचालन करते हुए सत्यनिष्ठ गुरु शिष्यों को पढ़ाकर विद्वान्, कर्तव्यपरायण और सदाचारी करें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ कीदृशो गुरुः किं करोतीत्याह।
(अग्रियः) अग्रे भवः श्रेष्ठः, (वृषा२) ज्ञानवर्षकः, (सत्यः) सत्यनिष्ठ, (अध्वरः) यज्ञमयजीवनः, सोमः विद्वान् गुरुः (वने) अरण्ये (सद्म अभि) गुरुकुलगृहे (वाचः युजा) वाण्याः योगेन (उ) निश्चयेन (प्र अचिक्रदत्) प्रक्रन्दति, शिष्यान् कर्तव्यानि उपदिशति ॥३॥
उपह्वरे गिरीणां सङ्गमे च नदीनां गुरुकुलानि संचालयन्तः सत्यनिष्ठा गुरवः शिष्यानध्याप्य विदुषः कर्तव्य-परायणान् सदाचारिणश्च कुर्युः ॥३॥