अ꣣भि꣢ प्रि꣣यं꣢ दि꣣व꣢स्प꣣द꣡म꣢ध्व꣣र्यु꣢भि꣣र्गु꣡हा꣢ हि꣣त꣢म् । सू꣡रः꣢ पश्यति꣣ च꣡क्ष꣢सा ॥११२७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अभि प्रियं दिवस्पदमध्वर्युभिर्गुहा हितम् । सूरः पश्यति चक्षसा ॥११२७॥
अभि꣢ । प्रि꣡य꣢म् । दि꣣वः꣢ । प꣣द꣢म् । अ꣣ध्वर्यु꣡भिः꣢ । गु꣡हा꣢꣯ । हि꣣त꣢म् । सू꣡रः꣢꣯ । प꣣श्यति । च꣡क्ष꣢꣯सा ॥११२७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे पुनः परमात्मा के साक्षात्कार का वर्णन है।
(प्रियम्) प्रिय, (दिवः) द्युलोक के (पदम्) प्रतिष्ठापक, (गुहा हितम्) गुफा में निहित अर्थात् गुह्य सोम नामक परमात्मा को (अध्वर्युभिः) योग-यज्ञ के अध्वर्यु-रूप योगप्रशिक्षक गुरुओं के द्वारा शिक्षा दिया हुआ (सूरः) विद्वान् उपासक (चक्षसा) अन्तर्दृष्टि से (अभि पश्यति) साक्षात्कार कर लेता है ॥१२॥
सुयोग्य योगप्रशिक्षक गुरुओं से योग का अभ्यास करके उपासक जन चर्म-चक्षुओं से अदृश्य, सर्वान्तर्यामी परमात्मा की अनुभूति पाने में समर्थ हो जाते हैं ॥१२॥ इस खण्ड में गुरु-शिष्य के विषय का तथा गुरु द्वारा प्रदर्शित मार्ग से परमात्मा के साक्षात्कार का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ अष्टम अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः परमात्मसाक्षात्कारं वर्णयति।
(प्रियम्) प्रीतिपात्रम्, (दिवः) द्युलोकस्य (पदम्) प्रतिष्ठापकम्, (गुहा हितम्) गुहायां निहितम्, गुह्यं सोमं परमात्मानम् (अध्वर्युभिः) योगयज्ञस्य अध्वर्युभूतैः योगप्रशिक्षकैः गुरुभिः शिक्षितः सन् (सूरः) प्राज्ञः उपासकः (चक्षसा) अन्तर्दृष्ट्या (अभिपश्यति) साक्षात्करोति ॥१२॥
सुयोग्यैर्योगप्रशिक्षकैर्गुरुभिर्योगमभ्यस्योपासक-जनाश्चर्मचक्षुर्भ्याम् अदृश्यं सर्वान्तर्यामिनं परमात्मानमनुभवितुं समर्था जायन्ते ॥१२॥ अस्मिन् खण्डे गुरशिष्यविषयस्य गुरुप्रदर्शितमार्गेण परमात्मसाक्षात्कारस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति ॥