ना꣢भा꣣ ना꣡भिं꣢ न꣣ आ꣡ द꣢दे꣣ च꣡क्षु꣢षा꣣ सू꣡र्यं꣢ दृ꣣शे꣢ । क꣣वे꣡रप꣢꣯त्य꣣मा꣡ दु꣢हे ॥११२६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)नाभा नाभिं न आ ददे चक्षुषा सूर्यं दृशे । कवेरपत्यमा दुहे ॥११२६॥
ना꣡भा꣢꣯ । ना꣡भि꣢꣯म् । नः꣣ । आ꣢ । द꣣दे । च꣡क्षु꣢꣯षा । सू꣡र्य꣢꣯म् । दृ꣡शे꣢ । क꣣वेः꣢ । अ꣡प꣢꣯त्यम् । आ । दु꣣हे ॥११२६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में गुरु के बताये मार्ग द्वारा परमात्मा के साक्षात्कार का वर्णन है।
मैं गुरु द्वारा निर्दिष्ट उपाय से (नाभा) केन्द्रभूत अन्तरात्मा में (नः) अपने (नाभिम्) केन्द्रभूत परमात्मा को (आ ददे) ग्रहण करता हूँ, (चक्षुषा) अन्दर की आँख से ((सूर्यम्) सूर्यसम प्रभावान् उस परमात्मा को (दृशे) देखने के लिए समर्थ होता हूँ। (कवेः) कवि सोम परमात्मा की (अपत्यम्) सन्तान वेदकाव्य को (आ दुहे) दुहता हूँ ॥११॥
आचार्य द्वारा वेद दुहने की कला को सीखकर जो वेदार्थों को दुहते हैं और वेदप्रतिपाद्य परमेश्वर की आराधना करते हैं, उनका जीवन सफल हो जाता है ॥११॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ गुरुप्रोक्तेन मार्गेण परमात्मसाक्षात्कारमाह।
अहम् गुरुणा निर्दिष्टेन उपायेन (नाभा) नाभौ केन्द्रभूते अन्तरात्मनि। [सुपां सुलुक्०। अ० ७।१।३९। इति सप्तम्येकवचनस्य डादेशः।] (नः) अस्माकम् (नाभिम्) केन्द्रभूतं परमात्मानम् (आ ददे) गृह्णामि। (चक्षुषा) अन्तर्नेत्रेण (सूर्यम्) सूर्यप्रभं तं परमात्मानम् (दृशे) द्रष्टुम् प्रभवामि इति शेषः। (कवेः) काव्यकर्तुः सोमस्य परमेश्वरस्य (अपत्यम्) सन्तानं वेदकाव्यम् (आ दुहे) आ दोह्मि ॥११॥
आचार्यद्वारा वेदार्थदोहनकलां शिक्षित्वा ये वेदार्थान् दुहन्ति, वेदप्रतिपाद्यं परमेश्वरं चाराध्नुवन्ति तेषां जीवनं सफलं जायते ॥११॥