अ꣢प꣣ द्वा꣡रा꣢ मती꣣नां꣢ प्र꣣त्ना꣡ ऋ꣢ण्वन्ति का꣣र꣡वः꣢ । वृ꣢ष्णो꣣ ह꣡र꣢स आ꣣य꣡वः꣢ ॥११२४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अप द्वारा मतीनां प्रत्ना ऋण्वन्ति कारवः । वृष्णो हरस आयवः ॥११२४॥
अ꣡प꣢꣯ । द्वा꣡रा꣢꣯ । म꣣तीना꣢म् । प्र꣣त्नाः꣢ । ऋ꣣ण्वन्ति । कार꣡वः꣢ । वृ꣡ष्णः꣢꣯ । ह꣡र꣢꣯से । आ꣣य꣡वः꣢ ॥११२४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर वही विषय कहा गया है।
(प्रत्नाः) पुरातन अर्थात् ज्ञान एवं आयु में वृद्ध, (कारवः) मौखिक एवं व्यावहारिक विद्याओं के शिल्पकार, (आयवः) कर्मयोगी गुरुलोग (वृष्णः) सुखवर्षी ज्ञान को (हरसे) शिष्यों के अन्तरात्मा में लाने के लिए (मतीनाम्) शिष्यों की बुद्धियों के (द्वारा) द्वारों को (अप ऋण्वन्ति) खोल देते हैं ॥९॥
गुरुओं को चाहिए कि वे शिष्यों की बुद्धियों के बन्द द्वारों को खोलकर उन्हें गम्भीर ज्ञान के ग्रहण करने योग्य करके पण्डित बना दें ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
(प्रत्नाः) पुरातनाः ज्ञानवयोवृद्धाः (कारवः) मौखिकीनां व्यावहारिकीणां च विद्यानां शिल्पिनः, (आयवः) कर्मयोगिनो गुरुजनाः। [यन्ति क्रियाशीला भवन्ति इति आयवः। ‘छन्दसीणः’ उ० १।२ इत्यनेन इण् गतौ धातोः उण् प्रत्ययः।] (वृष्णः) सुखवर्षकस्य ज्ञानस्य (हरसे) शिष्याणामन्तरात्मनि आहरणाय (मतीनाम्) शिष्यबुद्धीनाम् (द्वारा) द्वाराणि (अप ऋण्वन्ति) अपवृण्वन्ति ॥९॥
गुरवः शिष्यबुद्धीनाम् अपावृतानि द्वाराणि समुद्घाट्य तान् गम्भीरज्ञानग्रहणक्षमान् विधाय पण्डितान् कुर्युः ॥९॥