आ꣣पाना꣡सो꣢ वि꣣व꣡स्व꣢तो꣣ जि꣡न्व꣢न्त उ꣣ष꣢सो꣣ भ꣡ग꣢म् । सू꣢रा꣣ अ꣢ण्वं꣣ वि꣡ त꣢न्वते ॥११२३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आपानासो विवस्वतो जिन्वन्त उषसो भगम् । सूरा अण्वं वि तन्वते ॥११२३॥
आ꣣पाना꣡सः꣢ । वि꣣व꣡स्व꣢तः । वि꣣ । व꣡स्व꣢꣯तः । जि꣡न्व꣢꣯न्तः । उ꣣ष꣡सः꣢ । भ꣡ग꣢꣯म् । सू꣡राः꣢꣯ । अ꣡ण्व꣢꣯म् । वि । त꣣न्वते ॥११२३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर गुरु-शिष्य का विषय है।
(आपानासः) ज्ञानरस के कुएँ के समान, (सूराः) सूर्य के समान तेजस्वी गुरु लोग (विवस्वतः) अन्धकार को दूर करनेवाले सूर्य की, तथा (उषसः) उषा की (भगम्) शोभा को (जिन्वन्तः) शिष्यों के हृदयों में प्रेरित करते हुए (अण्वम्) सूक्ष्म से सूक्ष्म भी विज्ञान को (वितन्वते) शिष्य की बुद्धि में फैला देते हैं ॥८॥
जैसे उषा और सूर्य रात्रि के अन्धेरे को चीरकर भूमि पर प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही गुरुजन शिष्यों के अज्ञानरूप अन्धकार को दूर करके सूक्ष्म से सूक्ष्म विज्ञान को उनके सम्मुख हस्तामलकवत् कर देते हैं और विद्या की ज्योति से उनके आत्मा को चमका देते हैं ॥८॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनर्गुरुशिष्यविषयो वर्ण्यते।
(आपानासः) आपानाः, (ज्ञानरसस्य) कूपभूताः, (सूराः) सूर्यसमतेजस्काः सोमाः गुरवः (विवस्वतः) अन्धकारोच्छेदकस्य आदित्यस्य (उषसः) प्रभातकान्तेश्च (भगम्) श्रियम् (जिन्वन्तः) शिष्याणां हृदयेषु प्रेरयन्तः (अण्वम्२) सूक्ष्मपि विज्ञानम् (वि तन्वते) शिष्यबुद्धौ विस्तारयन्ति ॥८॥
यथोषाः सूर्यश्च रात्रेरन्धकारं विच्छिद्य भूमौ प्रकाशं जनयतस्तथैव गुरुजनाः शिष्याणामज्ञानान्धकारमपनीय सूक्ष्मतममपि विज्ञानं हस्तामलकवदाविष्कुर्वन्ति विद्याज्योतिषा च तेषामात्मानं भासयन्ति ॥८॥