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रा꣡जा꣢नो꣣ न꣡ प्रश꣢꣯स्तिभिः꣣ सो꣡मा꣢सो꣣ गो꣡भि꣢रञ्जते । य꣣ज्ञो꣢꣫ न स꣣प्त꣢ धा꣣तृ꣡भिः꣢ ॥११२१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

राजानो न प्रशस्तिभिः सोमासो गोभिरञ्जते । यज्ञो न सप्त धातृभिः ॥११२१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रा꣡जा꣢꣯नः । न । प्र꣡श꣢꣯स्तिभिः । प्र । श꣣स्तिभिः । सो꣡मा꣢꣯सः । गो꣡भिः꣢꣯ । अ꣣ञ्जते । यज्ञः꣢ । न । स꣣प्त꣢ । धा꣣तृ꣡भिः꣢ ॥११२१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1121 | (कौथोम) 4 » 2 » 1 » 6 | (रानायाणीय) 8 » 1 » 1 » 6


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर गुरुओं का ही वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(राजानः न) राजा लोग जैसे (प्रशस्तिभिः) विजय-प्रशस्तियों से भासित होते हैं, (यज्ञः न) मानसयज्ञ जैसे (सप्त धातृभिः) मन, बुद्धि, पञ्च ज्ञानेन्द्रिय इन सात होताओं से भासित होता है अथवा (यज्ञः न) अग्निष्टोम यज्ञ जैसे (सप्त धातृभिः) सप्त होताओं से शोभित होता है, वैसे ही (सोमासः) विद्वान् गुरुलोग (गोभिः) ज्ञान-रश्मियों से वा वेद-वाणियों से (अञ्जते) भासित होते हैं ॥६॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥६॥

भावार्थभाषाः -

राजा लोग जैसे प्रशस्ति-गीतों से शोभित होते हैं, यज्ञ जैसे ऋत्विजों से शोभित होता है। वैसे ही गुरुलोग विद्या, ब्रह्मसाक्षात्कार, तेज, तप, प्रेम, क्षमा और मधुर व्यवहार से शोभा पाते हैं ॥६॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि गुरवो वर्ण्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(राजानः न) नृपतयो यथा (प्रशस्तिभिः) विजयकीर्तिभिः भासन्ते, (यज्ञः न) मानसो यज्ञो यथा (सप्त धातृभिः२) मनोबुद्धिज्ञानेन्द्रियरूपैः सप्तभिः होतृभिः भासते, यद्वा (यज्ञः न) अग्निष्टोमयज्ञो यथा (सप्त धातृभिः) सप्तभिः (होतृभिः) भासते तथा (सोमासः) विद्वांसो गुरवः (गोभिः) ज्ञानरश्मिभिः, वेदवाग्भिर्वा (अञ्जते) भासन्ते। [अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु, रुधादिः] ॥६॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥६॥

भावार्थभाषाः -

नृपा यथा प्रशस्तिगीतैः शोभन्ते, यज्ञो यथा ऋत्विग्भिः शोभते तथैव गुरुजना विद्यया, ब्रह्मसाक्षात्कारेण, तेजसा, तपसा, प्रेम्णा, क्षमया, मधुरव्यवहारेण च शोभन्ते ॥६॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०।३। २. सप्तधातृभिः सप्त होत्राभिः—इति सा०। सप्तवषट्कारिणः सप्त धातारः, अथवा सप्तच्छन्दांसि सप्त धातारः—इति वि०।