प्र꣢ स्वा꣣ना꣢सो꣣ र꣡था꣢ इ꣣वा꣡र्व꣢न्तो꣣ न꣡ श्र꣢व꣣स्य꣡वः꣢ । सो꣡मा꣢सो रा꣣ये꣡ अ꣢क्रमुः ॥१११९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र स्वानासो रथा इवार्वन्तो न श्रवस्यवः । सोमासो राये अक्रमुः ॥१११९॥
प्र । स्वा꣣ना꣡सः꣢ । र꣡थाः꣢꣯ । इ꣢व । अ꣡र्व꣢꣯न्तः । न । श्र꣣वस्य꣡वः꣢ । सो꣡मा꣢꣯सः । रा꣡ये꣢ । अ꣣क्रमुः ॥१११९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में गुरुओं का वर्णन है।
(सोमासः) विद्वान् गुरु लोग (रथाः इव) रथों के समान (स्वानासः) शब्द करनेवाले और (अर्वन्तः इव) आक्रमणकारी योद्धाओं के समान (श्रवस्यवः) कीर्ति के इच्छुक होते हुए (राये) विद्यारूप ऐश्वर्य के लिए अर्थात् राष्ट्र में विद्यारूप ऐश्वर्य उत्पन्न करने के लिए (प्र अक्रमुः) उद्योग करते हैं ॥४॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥४॥
जैसे सड़क पर चलते हुए रथ शब्द करते हैं, वैसे ही गुरुजन पढ़ाते समय भाषण करते हैं। जैसे युद्ध करने में उद्भट योद्धागण विजय की कीर्ति चाहते हैं, वैसे ही गुरु लोग राष्ट्र में सुयोग्य विद्वानों को उत्पन्न करके उनसे प्राप्त होनेवाली कीर्ति की कामना करते हैं ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ गुरून् वर्णयति।
(सोमासः) विद्वांसो गुरवः (रथाः इव) स्यन्दना इव (स्वानासः) शब्दान् कुर्वन्तः (अर्वन्तः इव) आक्रान्तारो योद्धारः इव (श्रवस्यवः) कीर्तिकामाः सन्तः (राये) विद्यैश्वर्याय, राष्ट्रे विद्यारूपमैश्वर्यं जनयितुमित्यर्थः प्र (अक्रमुः) उद्युञ्जते ॥४॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥४॥
यथा मार्गे चलन्तो रथाः शब्दायन्ते तथा विद्वांसो गुरुजना अध्यापनकाले भाषन्ते। यथा रणोद्भटा योद्धारो विजयकीर्तिं कामयन्ते तथा गुरवो राष्ट्रे सुयोग्यान् विदुष उत्पाद्य तज्जनितां कीर्तिमभिलषन्ति ॥४॥