अर्च꣢꣯न्त्यर्कं मरुतः स्वर्का आ स्तोभति श्रुतो युवा स इन्द्रः ॥१११४॥
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अ꣡र्च꣢꣯न्ति । अ꣣र्क꣢म् । म꣣रु꣡तः꣢ । स्व꣣र्काः꣢ । सु꣣ । अर्काः꣢ । आ । स्तो꣣भति । श्रुतः꣡ । यु꣡वा꣢꣯ । सः । इ꣡न्द्रः꣢꣯ ॥१११४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीया ऋचा पूर्वार्चिक में ४४५ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ गुरु-शिष्य का और राजा-प्रजा का विषय वर्णित है।
प्रथम—गुरु और शिष्य के पक्ष में। (स्वर्काः) शुभ वेदमन्त्रों का पाठ करनेवा्ले (मरुतः) प्राणायाम के अभ्यासी शिष्य (अर्कम्) पूजनीय आचार्यदेव का (अर्चन्ति) सत्कार करते हैं। (श्रुतः) प्रसिद्ध, (युवा) युवा के तुल्य सक्रिय (सः इन्द्रः) वह आचार्य, उन्हें (आ स्तोभति) विद्या आदि के प्रदान द्वारा सहारा देता है ॥ द्वितीय—राजा और प्रजा के पक्ष में। (स्वर्काः) सूर्यसम अतितेजस्वी (मरुतः) राष्ट्रवासी मनुष्य (अर्कम्) तेजस्वी राजा का (अर्चन्ति) सत्कार करते हैं। (श्रुतः) सबके द्वारा जिसके गुण सुने गये हैं, ऐसा (युवा) युवक (सः इन्द्रः) वह वीर राजा, उनकी (आ स्तोभति) शरण देकर रक्षा करता है ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥२॥
शिष्यों से सत्कार किया गया आचार्य और प्रजाजनों से सत्कार किया गया राजा पूर्णरूप से उनका हित करता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीया ऋक् पूर्वार्चिके ४४५ क्रमाङ्के परमात्मविषय एव व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषयो राजप्रजाविषयश्च वर्ण्यते।
प्रथमः—गुरुशिष्यपरः। (स्वर्काः) सुमन्त्रपाठिनः। [अर्को मन्त्रो भवति यदनेनार्चन्ति। निरु० ५।४।] (मरुतः) प्राणायामाभ्यासिनः शिष्याः (अर्कम्) अर्चनीयम् आचार्यदेवम्। [अर्को देवो भवति यदेनमर्चन्ति निरु० ५।४।] (अर्चन्ति) सत्कुर्वन्ति। (श्रुतः) प्रसिद्धः (युवा) तरुणवत् सक्रियः (सः इन्द्रः) स आचार्यः, तान् (आ स्तोभति) विद्यादिप्रदानेन अवलम्बं प्रयच्छति ॥ द्वितीयः—राजप्रजापरः (स्वर्काः) सूर्यवत् सुतेजस्विनः (मरुतः) राष्ट्रवासिनो मनुष्याः (अर्कम्) तेजस्विनं नृपम् (अर्चन्ति) सत्कुर्वन्ति। (श्रुतः) सर्वैः श्रुतगुणः, (युवा) यौवनसम्पन्नः (सः इन्द्रः) असौ वीरो राजा, तान् (आ स्तोभति) शरणप्रदानेन रक्षति ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥
शिष्यैः सत्कृत आचार्यः प्रजाजनैश्च सत्कृतो राजा सर्वात्मना तेषां हितं सम्पादयति ॥२॥