प्र꣡ व इन्द्राय वृत्रहन्तमाय विप्राय गाथं गायत यं जुजोषते ॥१११३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्र व इन्द्राय वृत्रहन्तमाय विप्राय गाथं गायत यं जुजोषते ॥१११३॥
प्र꣢ । वः꣣ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । वृ꣣त्रह꣡न्त꣢माय । वृ꣣त्र । ह꣡न्त꣢꣯माय । वि꣡प्रा꣢꣯य । वि । प्रा꣣य । गाथ꣢म् । गा꣣यत । य꣢म् । जु꣣जो꣡ष꣢ते ॥१११३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथमा ऋचा पूर्वार्चिक में ४४६ क्रमाङ्क पर परमात्मा की स्तुति के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ गुरु-शिष्य का और राजा-प्रजा का विषय वर्णित है।
हे शिष्यो वा हे प्रजाजनो ! (वः) तुम (वृत्रहन्तमाय) दोषों वा शत्रुओं के अतिशय विनाशक, (विप्राय) विद्वान् (इन्द्राय) आचार्य वा राजा के लिए (गाथम्) गुणवर्णनपरक स्तोत्र (प्र गायत) भली-भाँति गाओ, (यम्) जिस स्तोत्र को, वह (जुजोषते) प्रीति के साथ सेवन करे ॥१॥
शिष्यों को गुरुओं के और प्रजाजनों को राजा के गुणों का कीर्तन करके उनसे यथायोग्य विद्या, विनय, राष्ट्र का उत्थान आदि लाभ प्राप्त करने चाहिएँ ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४४६ क्रमाङ्के परमात्मस्तुतिविषये व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषयो राजप्रजाविषयश्च वर्ण्यते।
हे शिष्याः, हे प्रजाजनाश्च ! (वः) यूयम् (वृत्रहन्तमाय) अतिशयेन दोषाणां शत्रूणां वा विनाशकाय, (विप्राय) विदुषे (इन्द्राय) आचार्याय नृपतये वा (गाथम्) गुणवर्णनपरं स्तोत्रम् (प्र गायत) प्र कीर्तयत, (यम्) गाथं स्तोत्रम्, सः (जुजोषते) प्रीत्या सेवते ॥१॥
शिष्यैर्गुरूणां प्रजाजनैश्च राज्ञो गुणान् कीर्तयित्वा तेभ्यो यथायोग्यं विद्याविनयराष्ट्रोत्थानादयो लाभाः प्राप्तव्याः ॥१॥