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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: पर्वतनारदौ काण्वौ छन्द: उष्णिक् स्वर: ऋषभः काण्ड:

तं꣡ वः꣢ सखायो꣣ म꣡दा꣢य पुना꣣न꣢म꣣भि꣡ गा꣢यत । शि꣢शुं꣣ न꣢ ह꣣व्यैः꣡ स्व꣢दयन्त गू꣣र्ति꣡भिः꣢ ॥१०९८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

तं वः सखायो मदाय पुनानमभि गायत । शिशुं न हव्यैः स्वदयन्त गूर्तिभिः ॥१०९८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त꣢म् । वः꣣ । सखायः । स । खायः । म꣡दा꣢꣯य । पु꣣नान꣢म् । अ꣣भि꣢ । गा꣣यत । शि꣡शु꣢꣯म् । न । ह꣡व्यैः꣢꣯ । स्व꣣दयन्त । गूर्ति꣡भिः꣢ ॥१०९८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1098 | (कौथोम) 4 » 1 » 19 » 1 | (रानायाणीय) 7 » 6 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ५६९ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात हुई थी। यहाँ भी प्रकारान्तर से उसी विषय का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सखायः) साथियो ! (वः मदाय) अपनी आनन्दप्राप्ति एवं उत्साहप्राप्ति के लिए, तुम (तम्) उस प्रसिद्ध (पुनानम्) पवित्र करनेवाले जगत्पति सोम परमेश्वर को (अभि) लक्ष्य करके (गायत) स्तुतिगीत गाओ। अन्य लोग भी उसे (गूर्तिभिः) अपने पुरुषार्थों से (स्वदयन्त) प्रसन्न किया करें, (शिशुं न) जैसे शिशुरूप यज्ञाग्नि को (हव्यैः) हवियों से तृप्त किया जाता है ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जैसे यज्ञाग्नि हवियों से जागता है, वैसे परमात्मा मनुष्य के पुरुषार्थों से प्रसन्न होता है। सबको चाहिए कि उसके स्तुतिगीत गाते हुए अपने जीवन को उन्नत करें ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५६९ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्रापि प्रकारान्तरेण स एव विषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सखायः) सुहृदः ! (वः मदाय) युष्माकम् आनन्दप्राप्तये उत्साहप्राप्तये च, यूयम् (तम्) प्रसिद्धम् (पुनानम्) पवित्रयन्तं सोमं जगत्पतिं परमेश्वरम् (अभि) अभिलक्ष्य (गायत) स्तुतिगीतानि प्रोच्चारयत। अन्येऽपि जनाः तम् (गूर्तिभिः) उद्यमैः, पुरुषार्थैः। [गुरी उद्यमने, तुदादिः। ततः क्तिच्।] (स्वदयन्त) प्रसादयन्तु, कथमिव ? (शिशुं न) शिशुं यज्ञाग्निं यथा (हव्यैः) हविर्भिः (स्वदयन्ति) तर्पयन्ति तथा ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यथा यज्ञाग्निर्हविर्भिर्जागर्ति तथा परमात्मा मनुष्यस्य पुरुषार्थैः प्रसीदति। तस्य स्तुतिगीतानि गायद्भिः सर्वैः स्वजीवनमुन्नेतव्यम् ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०५।१, ‘हव्यैः’ इत्यत्र ‘य॒ज्ञैः’। साम० ५६९।