त्वे꣡ विश्वे꣢꣯ स꣣जो꣡ष꣢सो दे꣣वा꣡सः꣢ पी꣣ति꣡मा꣢शत । म꣡दे꣢षु सर्व꣣धा꣡ अ꣢सि ॥१०९५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वे विश्वे सजोषसो देवासः पीतिमाशत । मदेषु सर्वधा असि ॥१०९५॥
त्वे꣡इति꣢ । वि꣡श्वे꣢꣯ । स꣣जो꣡ष꣢सः । स꣣ । जो꣡ष꣢꣯सः । दे꣣वा꣡सः꣢ । पी꣡ति꣢म् । आ꣣शत । म꣡दे꣢꣯षु । स꣣र्व꣢धाः । स꣣र्व । धाः꣢ । अ꣣सि ॥१०९५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में फिर उसी विषय को कहा गया है।
हे सोम अर्थात् ज्ञानरसागार आचार्य ! (विश्वे) सब (सजोषसः) परस्पर समान प्रीतिवाले (देवासः) दिव्यगुणयुक्त ब्रह्मचारी शिष्य (त्वे) आपसे (प्रतिम्) ज्ञानरस के पान को (आशत) प्राप्त करते हैं। आप (मदेषु) ज्ञानजनित आनन्दों में (सर्वधाः) सब शिष्यों को धारण करनेवाले (असि) होते हो ॥३॥
जो शिष्य तपस्वी, ज्ञानानुरागी, गुरुओं का सत्कार करनेवाले और अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि दिव्य गुणों से युक्त होते हैं, वे ही आचार्य के पास से ज्ञान ग्रहण करने के अधिकारी और उसके प्रीतिपात्र बनते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।
हे सोम ज्ञानरसागार आचार्य ! (विश्वे) सर्वे (सजोषसः) सप्रीतयः (देवासः) दिव्यगुणयुक्ता ब्रह्मचारिणः शिष्याः (त्वे) त्वत्तः (पीतिम्) ज्ञानरसपानम् (आशत) प्राप्नुवन्ति। त्वम् (मदेषु) ज्ञानजनितेषु आनन्देषु (सर्वधाः) सर्वेषां शिष्याणां धारकः (असि) भवसि ॥३॥
ये शिष्यास्तपस्विनो ज्ञानानुरागिणो गुरूणां सत्कर्तारोऽहिंसासत्यास्तेयादि- दिव्यगुणयुक्ताश्च भवन्ति त एवाचार्यसकाशाज्ज्ञानग्रहणाधिकारिण- स्तत्प्रीतिपात्राणि च जायन्ते ॥३॥